Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४१० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
भाषित हैं। एक बार हम उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन एवं उसके अन्त में दी हुई उस गाथा को, जिसमें उसका महावीरभाषित होना स्वीकार किया गया है, परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान भी लें, किन्तु उसके अठारहवें अध्ययन की गाथा २४, जो न केवल इसी गाथा के समरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा प्राचीन लगती है। प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप है, तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अङ्ग ग्रन्थ के भाग हो सकते हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, समवायांग और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है । इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें, तो स्पष्ट रूप से उनमें नभिपव्वजा, कापिलीय, संजयीय आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येकबुद्धों के सम्बादरूप मिलते हैं जबकि विनयसुत्त, परिषह-विभक्ति, संस्कृत, अकामभरणीय, क्षुल्लक-निग्रंथीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित हैं और केसी-गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित कहे जा सकते हैं । अतः प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की विषयसामग्री से इन उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण हुआ है।
___ यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। यहो ऐसा प्रथम ग्रन्थ है जो जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप को सूचना देता है । मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य विवरण के पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप में था।
पुनः उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के ही अधोन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए भी कहा गया है कि ३६ अपृष्ठ का व्याख्यान करने के पश्चात ३७वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण के विषयवस्तु की चर्चा करते हुए उसमें पृष्ठ, अपृष्ठ और पृष्ठापृष्ठ का विरोध होना बताया गया है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण और उत्तराध्ययन को समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ठ प्रश्नों का व्याकरण हैं ।
____ हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं, कि पूर्व में ऋषिभाषित हो प्रश्नव्याकरण का एक भाग था । ऋषिपत को परवर्ती आचार्यों ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है । इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकट रूप से सम्बन्धित थे और किसी एक ही ग्रन्य के भाग थे। हरिभद्र (८वों शती) आवश्यक नियुक्ति को वृत्ति (८५) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते है। तेरहवों शताब्दी तक भो जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की चौदहवों सदी की विधिमार्गप्रपा में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्भाव उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समग्र रूप में एक ग्रन्थ मानें, तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरभाग उत्तराध्ययन कहा जाता था।
यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात । अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है-क्या वह भी किसी रूप में सुरक्षित है ? मेरी
में वह भी पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान र आश्रवद्वार और संवरद्वार नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगर चन्दजी नाहटा ने जिनवाणी. दिसम्बर १९८० में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण नामक कुछ अन्य ग्रन्थों का संकेत किया है । 'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' के नाम से एक ग्रन्थ मुनि जिनविजयजी सिंधी जैन ग्रन्थमाला ने ग्रन्थ क्रमांक ४३ में सम्बत २०१५ में प्रकाशित किया
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