Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 588
________________ ६] कविवर बनारसीदास की चतुःशती के अवसर पर विशेष लेख अर्द्धकथानक : पुनर्विलोकन ४३९ आत्मश्लाघा नहीं है । आत्म-चरित में आत्मश्लाघा से बच निकलना कठिन काम होता है। इस मायने में बनारसीदास मुक्त रहे हैं। 'अर्द्धकथानक' में समाज-पक्ष प्रसंगवश है। इसलिए इसमें किसी गम्भीर ऐतिहासिक तथ्य को जान पाना कठिन है-आंशिक रूप में उल्लिखित इतिहास सन्दर्भो में जो भी सूचनाएं मिलती है, उनकी उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। आत्मचरित की एक (साहित्यिक) उपलब्धि यह भी है कि हम कवि की अन्तर्दृष्टि से तादात्म्य के साथ ही साथ उसकी रचनाओं से भी परिचित होते हैं। कोई भी लेखक अपनी सृजनात्मक प्राप्तियों का अनुबोध आत्मकथा में अवश्य कराता है । ऐसा होने से किसी भी कवि के मूल्यांकन में सहायता मिलती है। 'अर्द्धकथानक' बनारसीदास की 'निजकथा है। जिसमें आस्मान्वेषण के स्थान पर आत्म-पीड़ा है। जीवन से जही स्थितियों की आत्म-स्वीकारोक्ति इसमें है। इन आत्म-स्वीकारोक्तियों को देखकर इस आत्मचरित को 'आधनिक' आत्मकथा लेखन के निकट मान लिया गया है। उन्होंने इसमें अपने (व्यापारी) परिवार की आप बीती कही है। इन संयोजित वृत्तों में संयोगवश जग-बीति भी जुड़ गया है और व्यापारिक यात्राओं में संस्मरण के तौर पर कुछ घटनाओं का इसमें जुड़ना भी जरूरी था। 'संस्मरण' के तौर पर जुड़े ‘अद्धकथानक' में ये अंश इतिहास सन्दर्भ बन गए हैं। अद्धकथानक में क्या है ? ___ इसमें रचनाकारों के आधे जीवन की गाथा है। उसने मनुष्य की आयु को एक सौ दस वर्ण माना है कि इसमें उसने अपने आधी जीवन-यात्रा को समेटा है, इसलिए इस नव-गाथा को 'अद्धं कथानक' कहता है; कृति का नाम भी यही रखा गया है।" मूलदास-कथा प्रारम्भ में वंश परिचय है और उसके बाद स्व-कथा। इनके दादा का नाम मूलदास था और पिता का नाम खरगसेन । दादा मूलदास मुगलों के मोदो थे और उसकी जागोर से उधारी देने का काम करते । संवत् १६०८ में बनारसी दास के पिता खरगसेन का जन्म हुआ ।२ संवत् १६१३ में मूलदास की मृत्यु हो गयी। मूलदास की सारी सम्पत्ति शासक (मगल) ने राजसात् कर ली । खरगदास मालवा छोड़कर जौनपूर चले गए। खरगसेग कथा खरगसेन अपने मामा मदनसिंघ श्रीमाल के यहाँ पहुँचे । आठ वर्ष की अवस्था होने पर उनकी व्यवसायिक शिक्षा शरु हयी। बाद में सिक्के परखने और रेहन रखने का हिसाब करने लगे। बारह वर्ष की अवस्था में वे बंगाल में लोदी खाँ के दीवान 'धन्ना' राय श्रीमाल के पोतदार बने ।" धन्ना की मृत्यु के बाद वे फिर जौनपुर लौटे । संवत १६२६ में आगरे में आकर वे सराफी करने लगे, २२ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हआ। आगरे में चचेरी बहन की ब्याह कर फिर वे वापस जौनपुर लौट आए और साझे में व्यापार करने लगे। संवत १६४३ में बनारसीदास का जन्म हुआ। बनारसीदास व्यथा पिता के समान आठ वर्ष को अवस्था में शिक्षा शुरु हुई और बारह वर्ष (संवत् १६५४) की अवस्था में विवाह ।" इसी वर्ष जौनपुर के हाकिम किलीच खाँ ने व्यापारियों से 'बड़ी वस्तु' (भेंट) न मिलने पर जौहरियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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