Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 566
________________ ६] जैन मिथक तथा उनके आदि स्रोत भगवान् ऋषभ ४१७ अपने धर्म प्रचार में साधारण जन को प्रभावित करने के लिए उन लोगों की जो बोल-चाल की भाषा थी, उसे ही अपने साहित्य का माध्यम बनाने में जैन लोग अग्रणी रहे हैं। इस कारण समय-समय पर बदलती हुई भाषाओं में जैन पुराण-साहित्य का सृजन हुआ है । प्राकृत के बाद जब संस्कृत का अधिक प्रभाव बढ़ा, तो उस भाषा में भी पुराणों को रचना करने में जैन लोग पीछे नहीं रहे। पश्चात जब अपभ्रंश-भाषाओं ने जोर पकड़ा, तब अपभ्रंश रचनाए भी होने लगी। इस प्रकार हम देखेंगे कि प्राकृत (महाराष्ट्री)-पुराणों का रचना काल छठों से पन्द्रहवीं शताब्दी तक, संस्कृत-पुराणों का दशवों से उन्नासवीं शताब्दी तक तथा अपभ्रंश-पुराणों का काल दशवीं से १६वीं शताब्दी तक रहा है। प्रचुरता की दृष्टि से प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश पुराणों का उत्कृष्ट काल क्रमशः १२वों-१३वों, १३वों से १७वीं तथा १६वीं शती रहा है। इन सब में संस्कृत कृतियों को संख्या सर्वोपरि है। जैन पुराण-शास्त्र की विशेषताएँ जैन पुराणों में प्रारम्भ में तीन लोक, काल-चक्र व कुलकरों के प्रादुर्भाव का वर्णन होता है। पश्चात् जम्बूद्वोप व भारत देश का वर्णन करके तीर्थस्थापना तथा वंश विस्तार दिया जाता है। तत्पश्चात् सम्बन्धित पुरुष के चरित का वर्णन होता है। प्रारम्भ में उनके अनेक पूर्वभवों को कथाओं के साथ अन्य अवान्तर कथाओं का भी समावेश होता है। इस प्रकार उनमें उस समय प्रचलित लोक कथाओं के भी दर्शन होते हैं। इन कथाओं में उपदेशों को कहीं संक्षिप्तता, तो कहीं भरमार रहती है। उनमें जैन सिद्धान्त का प्रतिपादन, सत्कर्मप्रवृत्ति और असत्कर्मनिवृत्ति, संयम, ता, त्याग, वैराग्य आदि को महिमा, कमसिद्धान्त की प्रबलता आदि पर बल रहता है। इन प्रसंगों पर मुनियों का प्रवेश भी पाया जाता है । इनके अतिरिक्त शेष भाग में तीर्थंकर को नगरी, माता-पिता का वैभव, गर्भ, जन्म, अतिशय, क्रोड़ा, शिक्षा, दीक्षा, प्रव्रज्या, तपस्या, परीषह, उपसर्ग, केवलज्ञान की प्राप्ति समवशरण, धर्मोपदेश, विहार, निर्वाण इत्यादि का वर्णन संक्षेप या विस्तार से सरल रूप में या कल्पनामय अथवा लालित्य एवं अलंकृत रूप में पाया जाता है। सांस्कृतिक दृष्टि से इन ग्रन्थों में भाषातत्त्व का विकास, सामान्य जीवन का चित्रण तथा रीति-रिवाज इत्यादि के दर्शन होते है जा पर्याप्त .. महत्त्वपूर्ण हैं। जैन रामायण और महाभारत __ भारतीय जनता को रामायण और महाभारत बहुत हो प्रिय रहे हैं । जैन पुराण साहित्य का श्रोगगेश भो इन्हीं दो कथानकों के ग्रन्थों से होता है । उपलब्ध जैन पुराण साहित्य में प्राचीनतम कृति प्राकृत भाषा में है। यह विमल. सूरि (५३० वि० या ४७३ ई.) की पउमचरिउ (पद्मचरित) नामक रचना है। इसमें आठवें बलदेव दाशरथो राम (पद्म), वासुदेव लक्ष्मण तथा प्रतिबासुदेव रावण का चरित वणित है। इस रामकथा को अमनो कुछ विशेषताएँ हैं जो पारम्परिक रामचरित से भिन्न हैं । जैसे-वानर और राक्षस-ये मनुष्य जातियाँ हैं-पशु नहीं, राम का स्वेच्छापूर्वक वनगमन, स्वर्णमृग की अनुपस्थिति, सीता का भाई भामंडल, हनुमान के अनेक विवाह, सेतुबन्ध को अनुपस्थिति आदि । यह रचना गाथाबद्ध है। कहीं-कहीं पर अलंकारों के प्रयोग तथा रस-भावात्मक वर्णनों के होते हुए भी इसको शैलो रामायण व महाभारत जैसी है। संस्कृत भाषा में भी प्रथम जैन पुराण राम सम्बन्धी ही है जो रविषेणाचार्य (७३५ वि० या ६७८ ई०) रचित पद्मपुराण है। इसी प्रकार अपभ्रंश भाषा में भी प्रथम उपलब्ध जैनपुराण ‘पउमचरिउ' है जो स्वयंभूदेव (८९७ - ९७७ वि० या ८४०-९२० ई०) को रचना है। काल की दृष्टि से रामायण के पश्चात् महाभारत सम्बन्धी कथा कृतियों की गणना जैन पुराण साहित्य में होती है। जैन साहित्य में ये रचनाएँ हरिवंशपुराण या पाण्डवपुराण के नाम से विख्यात है। उपलब्ध साहित्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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