Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४३२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
प्रतीक दो प्रकार के होते हैं-१. सन्दर्भीय, २. संघनित ।
सन्दर्भीय प्रतीकों के वर्ग में वाणी और लिपि से व्यक्त शब्द राष्ट्रीय पताकाएँ, तारों के परिवहन में प्रयुक्त होने वाली संहिता, रासायनिक तत्त्वों के चिह्न आदि है। संघनित प्रतीकों के उदाहरण धार्मिक कृत्यों में और स्वप्न तथा अन्य मनोवैज्ञानिक विवशताओं जन्य प्रक्रियाओं में मिलते हैं। ऐसे प्रत्येक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति या व्यवहार के स्थानापन्नों के संघनित रूप होते हैं और चेतन या अचेतन संवेगात्मक तनावों के मुक्त प्रसरण में सहायता देते हैं। व्यवहारिक जीवन में इन दोनों प्रकार के प्रतीकों का मिश्रण मिला करता है।
विभिन्न संस्कृतियों के अनुसार प्रतीकों के रूप तथा अभिप्राय भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं। साहित्य में रस के उत्कर्ष में नाना प्रकार के प्रतीकों को गृहीत किया जाता है। साभ्यता, शिष्टाचार, आधार, व्यवहार, आध्यात्मिकता, दार्शनिकता. लोकरंजन तथा काव्यशास्त्र प्रभति के अनुसार काव्य में प्रतीकों के प्रयोग हआ करते भाव उद्बोधन की शक्ति आवश्यक होती है। प्रतीकों में केवल सादृश्य मूलक उपमानों से भाव-प्रवणता की क्षमता नहीं हुआ करतो । यही कारण है कि सपक्ष कवि अपनी मार्मिक अन्तर्दृष्टि द्वारा ऐसे प्रतीकों का विधान करता है। जो प्रस्तुत की भावाभिव्यंजना में सपक्षता प्राप्त कर सके।
भाव और विचार की दृष्टि से प्रतीकों के दो भेद किए जा सकते हैं। यथा१. भावोत्पादक प्रतीक, २. विचारोत्पादक प्रतीक ।
यद्यपि विचार और भाव में स्पष्ट अन्तर स्थिर करना सरल नहीं है। प्रभावोत्पादक और विचारोत्पादक प्रतीकों में पारस्परिक उपस्थिति बनी ही रहती है ।
भावाभिव्यक्ति में सरलता, सरसता तथा स्पष्टता उत्पन्न करने के लिए रससिद्ध कवि प्रतीक योजना का प्रयोग करते हैं। जैन कवियों की हिन्दी काव्यकृतियों से भी प्रतीक-योजना का व्यवहार हुआ है। इन कवियों के समक्ष काव्य-सजन का लक्ष्य अपने भावों तथा दार्शनिक विचारों के प्रचार-प्रसार का प्रवर्तन करना प्रधान रूप से रहा है। इसलिए इन्होंने यगानसार प्रचलित काव्यरूपों, लक्षणों तथा उन समग्र उपकरणों को गृहीत किया है जिनके माध्यम से इनकी काव्याभिव्यक्ति में सरसता और सरलता का संचार हो सके।
इस प्रकार हिन्दी जैन-काव्य में व्यवहृत प्रतीकों का हम निम्न रूपों में वर्गीकरण कर सकते हैं । यथा
१. विकार और दुःख विवेचक प्रतीक, २. आत्मबोधक प्रतीक, ३. शरीरबोधक प्रतीक, ४. गुण और सर्वसुखबोधक प्रतीक ।
आध्यात्मिक अनुचिन्तन तथा तत्त्व-निरूपण करते समय इन कवियों द्वारा अनेक ऐसे प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है जिन्हें उक्त विभागों में संख्यायित नहीं किया जा सकता है। यहाँ हम हिन्दो जैन-काव्य में व्यवहृत प्रतीकों की स्थिति का अध्ययन शताब्दि क्रम ये करेंगे ताकि उनके विकास पर सहज रूप में प्रकाश पड़ सके
पन्द्रहवीं शती में रची गई काव्यकृतियों को हम काव्यरूपों की दृष्टि से अनेक भागों में विभाजित कर सकते हैं. मुख्यतः प्रबन्ध और मुक्तक रूप में समूचे काव्य कलेवर को विभाजित किया जा सकता है-१. प्रबन्धात्मकचरित, पुराण तथा रासपरक कृतियाँ और २. मुक्तक-अनेक काव्यरूपों में आराध्य की अर्चना तथा भक्ति-भावना को अभिव्यंजना हुई है।
प्रारम्भ में अभिधामूला अभिव्यक्ति का प्रचलन रहा है फिर भी मनीषी और सारस्वत क्षेत्र में अभिव्यक्ति के स्तर का उत्कर्ष हुआ है। किन्तु जैन कवियों के समक्ष अपने आध्यात्मिक माहात्म्य को अभिव्यक्त कर जन-साधारण
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