Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 555
________________ ४०६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड नरक, तिर्यञ्च, जरा-मरण, रोग आदि सांसारिक दुःखों का वर्णन किया जाता है। उसमें यह भी कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के अनुसार हत, नष्ट, मुक्ति, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का निरूपण करता है। इस प्रकार प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीन उल्लेखों में एकरूपता नहीं है। प्रश्नव्याकरण को विषयवस्तु सम्बन्धी विवरणों को समीक्षा मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरणसूत्र को विषयवस्तु के तीन संस्कार हुए होंगे । प्रथम एवं प्राचीनतम संस्कार, जो 'वागरण' कहा जाता था, ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही इसकी प्रमुख विषयवस्तु रहो होगी। ऋषिभाषित में 'वागरण' ग्रन्थ का एवं उसकी विषयवस्तु की ऋषिभाषित से समानता का उल्लेख है।' इससे प्राचीनकाल (ई०पू०४ थी या ३री शताब्दी) में इसके अस्तित्व की सूचना तो मिलती ही है, साथ ही प्रश्नव्याकरण और ऋषिका सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है। स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरण का वर्गीकरण दस दशाओं में किया है । सम्भवतः जब प्रश्नव्याकरण के इस प्राचीन संस्करण की रचना हुई होगी, तब ग्यारह अंगों अथवा द्वादश गणिपिटिक की अवधारणा भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पाई थी। अंग-आगम साहित्य के पांच ग्रन्थ-उपासकदशा, अन्तकृतदशा, प्रश्नव्याकरणदशा और अनुत्तरोपपातिकदशा तथा कर्मविपाकदशा (विपाकदशा)-दस दशाओं से ही परिगणित किए जाते थे। आज इन दशाओं में उपयुक्त पांच तथा आचारदशा, जो आज दशाश्रुतस्कन्ध के नाम से जानी जाती है, को छोड़कर शेष चार-बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपदशा उपलब्ध है। उपलब्ध छह दशाओं में भी उपासकदशा और आयारदशा की विषयवस्तु स्थानांग में उपलब्ध विवरण के अनुरूप है। कर्मविपाक और अनुत्तरोपपातिकदशा की विषयवस्तु में कुछ समानता है और कुछ भिन्नता है। जबकि प्रश्नव्याकरणदशा और अन्तकृतदशा को विषयवस्तु पूरी तरह बदल गई है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु सूचित की गई है, वहो इसका प्राचीनतम संस्करण लगता है, क्योंकि यहां तक इसकी विषयवस्तु में नैमित्तिक विद्याओं का अधिक प्रवेश नहीं देखा जाता है । स्थानांग प्रश्नव्याकरण के जिन दस अध्ययनों का निर्देश करता है, उनमें भी मेरी दृष्टि में इसिभासियाई, आयरियभासियाई और महावीरभासियाई-ये तीन प्राचीन प्रतीत होते हैं। उवमा और संखा की सामग्रो क्या थी? कहा नहीं जा सकता। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'उपमा' में कुछ रूपकों के द्वारा धर्म-बोध कराया गया होगा जैसा कि ज्ञाताधर्म कथा में कर्म और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमशः यह समझाया गया है कि जो इन्द्रिय-संयम नहीं करता है, वह दुःख को प्राप्त होता है और जो साधना में अस्थिर रहता है, वह फल को प्राप्त नहीं करता है। इसी प्रकार 'संखा' में स्थानांग और समवायांग के समान संख्या के आधार पर वणित सामग्री हो। यद्यपि यह भी सम्भव है कि संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्यदर्शन से रहा हो क्योंकि अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ में थो। साथ हो, प्राचीनकाल में सांख्य श्रमणाधार का ही दर्शन था और जैन दर्शन से इसकी निकटता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अदागपसिणाई, बाहपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्विक परिचर्चा से रहा हो जो क्रमशः आद्रंक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्वचर्चा से सम्बन्धित रहे होंगे। अदागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्शप्रश्न' के रूप में संस्कृत छाया भी उचित नहीं है। उसकी संस्कृतछाया 'आद्रकप्रश्न' ऐसी होनी चाहिए । आर्द्रक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा सूत्रकृतांग में मिलती है, साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अदाएण' (आर्द्रक) और बाह (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध है। हो सकता है कि कोमल और खोम = क्षोभ भी कोई ऋषि रहे हैं। सोम का उल्लेख भी ऋषिभाषित में है। फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही हों कि ये अध्ययन निमित्त शास्त्र से सम्बन्धित थे, तो हमें यह मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610