Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३७० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
बना हुआ था । उस
कि सिंहासन दो पाषाण खण्डों से बनाया गया हो। पर मेरी नम्र राय में उसे उसी स्थान पर निर्मित किया गया है | बारीकी से देखने पर जिस आसन पर बड़े बाबा विराजमान हैं, वह अन्यत्र से नहीं लाया गया है । यहाँ आने वाले दर्शनार्थियों का कहना है कि सिंहासन में गोलक के लिए एक सुराख सुख में रुपया पैसा डालने पर तलभाग में वह कहाँ जाता था, इसका आज तक पता नहीं चला। इस कारण अब यह सुराख बन्द कर दिया गया है । वह स्थान कुछ भाइयों ने हमें भी दिखाया था । इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि बड़े बाबा का जिनबिम्ब और सिंहासन आदि जो कुछ भी निर्मित हुआ है, वह वहीं हुआ है । फिर भी हमारी राय है कि पुरातत्वविदों व इन्जीनियरों को बुलाकर इन सब बातों की समीक्षा एक बार अवश्य करा लेना चाहिए ताकि इस सम्बन्ध में होने वाले भ्रम को दूर किया जा सके ।
(ख) प्रथम ब्रह्म मन्दिर कुण्डलगिरि की तलहटी में स्थित है । मैं अनेक भाइयों के साथ उसके अभ्यन्तर भाग का अवलोकन करने के लिए वहाँ गया था। उनमें समाज के प्रसिद्ध विद्वान् श्री पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री भी थे । किन्तु मन्दिर के द्वार पर कुछ भाइयों ने ताला लगा रखा है। इसलिये उसके भीतर प्रवेश करके उसके भीतर क्या है, यह हम नहीं देख सके । फिर भी, उन भाइयों का कहना था कि मन्दिर के भीतर जो देवी की मूर्ति है, वह पद्मावती देवी की ही है ।
(ग) दूसरे ब्रह्ममन्दिर को रुक्मिणी मठ भी कहा जाता है । वह भी छठीं सदी का है । यह कुण्डलपुर ग्राम
के परिसर में अवस्थित है । इसे रुक्मिणी मठ क्यों कहा जाता है, इसके पीछे एक इतिहास है । यह ब्रह्ममन्दिर जीर्ण
बड़े बाबा के मन्दिर में स्थापित
शीर्ण अवस्था में है । वहाँ पहले जो जिनबिम्ब विराजमान थे, उन्हें यहाँ से ले जाकर कर दिया गया है । इस मन्दिर के मध्य भाग में ३ हाथ ४ अंगुल चौड़ा शिलापट्ट है
।
में
उसमें अंकित आम्रवृक्ष के मूल बालक हैं और दूसरा बालक उसमें भी जैन मूर्तियाँ अंकित होती रहती है । परन्तु इन
देखरेख नहीं हो पाती । न तो समाज का इस
में भगवान नेमिनाथ सहित यक्ष-यक्षिणी की एक मूर्ति प्रतिष्ठित है । यक्षिणी की गोदी आम्रवृक्ष पर चढ़ता हुआ दिखाया गया है। इस ब्रह्म मन्दिर में गिरदल रखा हुआ है । है । बड़े बाबा का मन्दिर तो समाज के अधिकार में होने से उसकी भले प्रकार देख-रेख दोनों ब्रह्म मन्दिरों की नहीं होती । यद्यपि कुण्डलगिरि की तलहटी में जो ब्रह्ममन्दिर है, उस पर अन्य भाइयों ने कब्जा अवश्य कर रखा है, परन्तु दूसरे ब्रह्ममन्दिर के समान इसकी भी समुचित ओर ध्यान है और न पुरातत्व विभाग का हो । (घ) बड़े बाबा के मन्दिर का जो गर्भालय हैं, उससे लग कर जो मण्डप है, उसके मध्य में एक चबूतरा बना हुआ है। उस पर मध्य में पुराने चरण चिह्न विराजमान हैं । वे कितने प्राचीन हैं, यह कहना कठिन है । पर जिस पाषाण खण्ड को काटकर उन्हें बनाया गया है, उसे देखते हुए ये चरण-चिह्न हजार आठ सौ वर्ष पुराने नियम से होने चाहिये, ऐसा प्रतीत होता है । सम्भव है कि यहाँ पर सन् ११४० में महाचन्द्र नाम के जो पट्टधर आचार्य हो गये हैं, उनके अनुरोध पर हो, यह निश्चय होने से कि यही वह कुण्डलगिरि है जहां से श्रीधर स्वामी मोक्ष गये हैं, इन चरण चिह्नों की स्थापना की गयी हो । उन पर 'कुण्डलगिरी श्रीधर स्वामी' यह लिखा होने से भी यही प्रतीत होता है कि उन्होंने ही श्रीधर स्वामी के इन चरण चिन्हों की स्थापना कराई होगी । श्री पं० बलभद्रजो ने 'मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ' के पृ० १९३ पर जो इन चरण चिह्नों को १२-१३वीं शताब्दी का सूचित किया है, उससे भी इस बात की सत्यता प्रमाणित होती है ।
1
(च) दोनों ब्रह्म मन्दिरों से जो कर दी गई हैं । उनके आकार और निर्माण नहीं दिखाई देतो कि ये सब मूर्तियाँ कम से कम उतनी प्राचीन प्रतीत होत हैं जितने प्राचीन ब्रह्ममन्दिर हैं । वे सब मूर्तियाँ पद्मासन हैं, संख्या में १४ हैं और प्रत्येक में पुष्पवर्णी देव और चरमवाहक हैं ।
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प्रतिमायें लाई गई थीं, उनमें से बहुत-सी प्रतिमायें तो शैली को देखते हुए इस कथन को स्वीकार कर लेने
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गर्भालय में ही स्थापित में हमें कोई आपत्ति
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