Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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कनकसेन का स्वतंत्रवचनामृत डा० पद्मनाभ एस० जैनी दक्षिण एवं दक्षिण पूर्वी एशिया अध्ययन विभाग, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले, के०, यू० एस० ए०
स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय पुस्तकालय के संग्रहागार में इस अप्रकाशित लघु जैन कविता की एकल पांडुलिपि उपलब्ध है।' इस पांडुलिपि (के दो ताड़पत्रों) का संक्षिप्त विवरण 'दी केटेलाग आव जैन मेनुस्क्रिप्ट ऐट स्ट्रासबर्ग' में पृष्ठ २२२ व२४० में दिया गया है । २ इसका मूलपाठ तथा अनुवाद नीचे दिया गया है। इससे पता चलता है कि यह कृति द्वात्रिंशिकाओं की शैली में लिखी गई है। इनमें ३२ श्लोकों में दार्शनिक मन्तव्य प्रकट किये जाते हैं। यह शैली चौथी सदी के सिद्धसेन दिवाकर के समय से ही लोकप्रिय है जो एकविंशति द्वात्रिंशिकाओं के लेखक के रूप में ख्यात हैं। वर्तमान कृति का मुझ कहीं भी उल्लेख प्राप्त नहीं हआ है और यद्यपि कनकसेन का नाम भी इस कविता के अन्त में पाया जाता है, पर उनका भी अन्य कोई विवरण (समय या व्यक्ति) उपलब्ध नहीं है। कर्ता के नाम में 'सेन' शब्द होने के कारण उसे सेनगण का माना जा सकता है जो दिगबर संप्रदाय का साधुसंध रहा है।
इस कविता के मूलपाठ को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है । प्रथम भाग में १-९ श्लोक आते हैं । इनमें आत्मा की प्रवृत्ति के विषय में विभिन्न परंपरागत दर्शनों की मान्यतायें दी गई हैं । दूसरे भाग में १०-२४ श्लोक आते हैं। इनमें आत्मा के संबन्ध में जैन मान्यता तो दी ही गई है, साथ ही, स्याद्वाद की युक्ति का उपयोग करते हुए अन्य दर्शनों के परस्पर विरोधों का परिहार भी किया गया है। तीसरे भाग में २५-३१ श्लोक आते हैं। इनमें मोक्षप्राप्ति के साधन स्वरूप दर्शन, ज्ञान और चारित्र के त्रिरज्नी पथ का वर्णन हैं। यद्यपि स्वतंत्र-वचनामत एक लघु कृति है, फिर भी इसके आत्मा को कर्मबंध से मुक्ति दिलाने के लिये उपयोगी जैन सिद्धान्त के पूरे वर्णन के कारण इसे पूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है ।
स्वतंत्र वचनामृतः मूलपाठ और अनुवाद SVATANTRAV ACANĀMỘTA : TEXT AND TRANSLATION श्री वीतरागाय नमः। Salutations to the auspicious one who is free from passions !
जीवाजीवक भाषाय प्राणे वतदन्यकैः ।
कार्यकारण मुक्त तं मुक्तात्मानं उपास्मते ॥१॥ We venerate that free soul who is emancipated from the cycle of cause and effect [namely the defiled state of bondage) and from the signs of embodiment and vital life and one who illuminates with his knowledge the entire range of the sentient and the insentient (1).
अथ मोक्षस्वभावाप्ति रात्मनः कर्मणां क्षयः । सम्यग्-दृग-ज्ञान-चारित्रः अविनाभावलमणः ॥२॥
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