Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि ३७३ इसलिए प्रकृत में यही समझना चाहिये कि कुण्डलगिरि हो सिद्धक्षेत्र है, पाण्डुगिरि नहीं। भले ही उसकी गणना राजगृहों के पंच पहाड़ों में की गई हो।
____ आगे परिशिष्ट लिखकर कोठियाजी लिखते हैं कि 'जब हम दमोह के पार्श्ववर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डलपुर को ऐतिहासिकता पर विचार करते हैं, तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते । केवल विक्रम की १७वीं शताब्दी का उत्कीर्ण हुआ शिलालेख प्राप्त होता है जिसे महाराज छात्रसाल ने वहाँ चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराते समय खुदवाया था। कहा जाता है कि कुण्डलपुर में भट्टारक की गद्दी थी। इस गद्दी पर छत्रसाल के समकाल में एक प्रभावशाली मन्त्रविद्या के ज्ञाता भट्टारक तब प्रतिष्ठित थे। तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वाद से छत्रसाल ने एक बड़ी भारी यवन सेना पर काबू करके उस पर विजय पाई थी। इससे प्रभावित होकर छत्रसाल ने कुण्डलपुर का जीर्णोद्धार कराया था, आदि ।'
उनके इस मत को पढ़कर ऐसा लगता है कि वे एक तो कभी कुण्डलपुर गये हो नहीं और गये भी हैं तो उन्होंने वहां का बारीकी से अध्ययन नहीं किया है। वे यह तो स्वीकार करते है कि छत्रसाल के काल में वहां एक चैत्यालय था और वह जीर्ण हो गया था। फिर भी, वे कुण्डलगिरि की ऐतिहासिकता को स्वीकार नहीं करते । जबकि पुरातत्व विभाग कुण्डलगिरि की ऐतिहासिकता को आठवीं शताब्दी तक का स्वीकार करता है। उसके प्रमाण रूप में कतिपय चिह्न आज भी वहाँ पाये जाते हैं। और सबसे बड़ा प्रमाण तो भगवान् ऋषभदेव (बड़े बाबा) की मूर्ति ही है। उसे १८वीं सदी से १०० वर्ष पुरानी बताना किसी स्थान के इतिहास के साथ न्याय करना नहीं कहा जायगा ।
जिन लोगों का क्षेत्र से कोई सम्बन्ध नहीं, जो जैन धर्म के उपासक भी नहीं, वे पुरातत्व का भले प्रकार अनुसन्धान करके क्षेत्र को छठी शताब्दी का लिखें और उसके प्रमाण स्वरूप दमोह स्टेशन पर एक शिलापट्ट द्वारा उसकी प्रसिद्धि भी करें और हम है कि उसका सम्यक् प्रकार से अवलोकन तो करें नहीं, वहाँ पाये जानेवाले प्राचीन अवशेषों को बुद्धिगम्य करें नहीं, फिर भी उसकी प्राचीनता को लेखों द्वारा सन्देह का विषय बनायें, वह प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जा सकती।
कोठियाजी ने अपने दोनों लेखों में प्रसंगतः दो विषयों का उल्लेख किया है। एक तो निर्वाणकाण्ड के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र (११ वीं शती) और श्रुतसागर (१५वीं-१६वीं शती) के मध्य में बने प्राकृत निर्वाणकाण्ड के आधार से बने, भैया भगवतीदास (सं० १७४१) के भाषा निर्वाणकाण्ड में जिन सिद्ध व अतिशय क्षेत्रों की परिगणना की गई है, उसमें भी कुण्डलपुर को सिद्धक्षेत्र या अतिशयक्षेत्र के रूप में परिगणित नहीं किया गया। इससे यही प्रतीत होता है कि यह सिद्धक्षेत्र तो नहीं है, अतिशय क्षेत्र भी १५ वी-१६ वीं शताब्दी के बाद प्रसिद्ध होना चाहिए।' यह कोठियाजी का वक्तव्य है। इससे मालूम पड़ता है कि उन्होने निर्वाणकाण्ड के दोनों पाठों का सम्यक् अवलोकन नहीं किया है। निर्वाणकाण्ड का एक पाठ मानपीठ पूजाञ्जलि में छपा है। उसमें कुल २१ गाथाएँ है । दूसरा पाठ क्रियाकलाप में छपा है। उसमें पूर्वोक्त २१ गाथायें तो हैं ही, उनके सिवाय ८ गाथायें और है इसलिए कोठियाजी का यह लिखना कि निर्वाणकांड में कुण्डलगिरि का किसी भी रूप में उल्लेख नहीं है, ठीक प्रतीत नहीं होता। निर्वाणकाण्ड का जो दूसरा पाठ मिलता है, उसकी २६ वी गाथा में 'णिवणकुण्डली वन्दे' इस गाथा के चौथे पाद (चरण) द्वारा निर्वाण क्षेत्र कुण्डलगिरि की वन्दना की गई है। यहाँ 'णिवण' पद निर्वाण अर्थ को सूचित करता है और 'कुण्डली' पद कुण्डलगिरि अर्थ को सूचित करता है । "णिवणं पद में आइमजपन्तवण्णसरलोवो' इस नियम के अनुसार 'ब' व्यंजन और 'आ' का लोप होकर णिवण पद बना है जो प्राकृत के नियमानुसार ठीक है। रही भैया भगवतीदास के भाषा निर्वाणकाण्ड की बात, सो उन्हें इक्कीस गाथा वाला निर्वाण काण्ड मिला होगा। इसलिए यदि उन्होंने भाषा निर्वाणकाण्ड में किसी भी रूप के कुण्डलगिरि का उल्लेख नहीं किया, तो इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वह निर्वाण क्षेत्र नहीं है। आप प्राकृत या भाषा निर्वाणकाण्ड पढ़िये, उनमें यदि ऊपर वणित राजगृहों के पाँच
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