Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३४२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड भारत से बौद्धधर्म के विलोपन के पश्चात् जैन और हिन्दू परस्पर में और निकट आये। यही कारण है कि सामान्य सामाजिक जीवन में जन और हिन्दूओं में कोई अन्तर ही नहीं मालूम होता । इस तथ्य से यह नहीं समझना चाहिए कि जैन हिन्दुओं के अंग हैं या जैन धर्म हिन्दू धर्म को शाखा है। वास्तव में, यदि हम जैन धर्म हिन्दू धर्म की तुलना करें तो पता चला है कि इनमें अन्तर बहुत है। इनमें जो एक रूपता है, वह सामान्य जीवन-पद्धति की विशेष बातों के सम्बन्ध में ही है। यदि अच्छी तरह देखा जावे, तो दोनों के विभिन्न उत्सवों के उद्देश्य भी भिन्न ही होते हैं।
यह स्पष्ट है कि जैन और हिन्दुओं के अनेक सामाजिक और धार्मिक व्यवहारों में मौलिक अन्तर है। ये अन्तर आज तक बने हए हैं। इसके साथ ही, हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जैनों के अनेक सामाजिक और धार्मिक व्यवहारों में जनेतर तत्वों का भी समाहरण भी होता रहा है। ऐसी बात नहीं है कि यह प्रक्रिया अन्धरूप में अपनाई गई हो। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों को जनेतर तत्वों का समाहरण जटिल परिस्थितियों के साथ समायोजन के लिये करना पड़ा था । यह उनके सुरक्षा या अतिजीवन के लिये स्वेच्छया स्वीकृति के रूप में माना गया। लेकिन ऐसा करते समय यह ध्यान रखा गया कि इस प्रक्रिया से धार्मिक व्यवहारों की शुद्धता पर विशेष प्रभाव न पडे । सोमदेव के समान मध्य युग के दक्षिण देशीय जैनाचार्यों ने लौकिक परम्पराओं और व्यवहारों को अपनाने की तब तक स्वीकृति दी जब तक उनसे सम्यक्त्व की हानि और ब्रतों में दूषण न हो पावे । लौकिक परंपराओं के पालन की स्वीकृति से जैनों के दो लाम हुए । जैन और हिन्दुओं के सम्बन्ध सदैव मधुर रहे। संभवतः इसो कारण वे अनेक विषम एवं जटिल परिस्थितियों में भी सदियों से इन्हें सुरक्षित बनाये हुये हैं। वास्तव में जैनों ने सदैव ही न केवल हिन्दुओं से अपि तु अन्य अल्पसंख्यकों से भी सदैव अच्छे संबंध बनाये रखने के संकल्पबद्ध प्रयत्न किये। यही कारण है कि जब जैन शासक के रूप में रहे, उन्होंने कभी भी जैनेतर समुदायों को त्रास नहीं दिया। इसके विपरीत, जनेतर शासकों द्वारा जैनों के सताये जाने के अनेक उदाहरण मिलते हैं । शोध के प्रमुख क्षेत्र
प्राचीन काल से लेकर अब तक जैनों का अविरत सातत्य भारत में उनके सामाजिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण पहलू है । इसलिये हमारे लिये न केवल यह आवश्यक है कि हम उनकी अतिजीविता के प्रमुख कारकों की छान बीन करें, अपि तु हमें उन कारकों पर भी ध्यान, अध्ययन और शोध करनी होगी जिनसे जैन भविष्य में भो अतिजीवित रह सकें। इस दृष्टि से हमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों के जैन और बहसंख्यक समुदाय के बीच वर्तमान संबंधों की प्रकृति
और आयामों पर शोध तो करनी ही होगी। यही नहीं, इसी आधार पर भविष्य के संबंधों से संबंधित नीति भी हमें निर्धारित करनी होगी। इसके अतिरिक्त, दक्षिण राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी महाराष्ट्र उत्तरी कर्नाटक के समान जैन बहुल क्षेत्रों में जैनों के सामाजिक जीवन के विविध आयामों का अध्ययन करना होगा जिससे जन जीवन पद्धति एवं उनकी समाजिक संस्थाओं का एकीकृत स्वरूप हमें ज्ञात हो सके। यही नहीं, बम्बई, कलकत्ता, अहमदाबाद, दिल्ली, इन्दौर, जयपुर, बंगलोर आदि बड़े-बड़े नगरों के जैनों का भी, उपर्युक्त आधारों पर वैज्ञानिक रीति से अध्ययन करना होगा। इसके साथ ही, उन कुटंबों के विशेष योगदानों का विश्लेषणात्मक अध्ययन मी करना होगा जिन्होंने जन जीवन पद्धति को प्रभावित और समृद्ध किया है । इसी प्रकार हमें उन परिवारों एवं व्यक्तियों के योगदान का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना होगा जिन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक, राजनीतिक, एवं सांस्कृतिक जीवन को नया विस्तार दिया है। जनों के द्वारा स्थापित और संचालित शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाज कल्याण की संस्थाओं के भारतीय समाज के लिये योगदान की दृष्टि से भी यह अध्ययन करना सामान्य जन के हित में होगा।
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