Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 513
________________ ३६४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड (i) अठसखा परवार : बुन्देलखण्ड में और अन्य प्रदेशों में इस समय जो परवार अन्वय के श्रावक कुल उपलब्ध हैं, वे सब अठसखा परवार है और मूलसंघ कुंदकुंद आम्नाय के अन्तर्गत सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण को मानने वाले हैं। __ (ii) छहसखा परवार : इन श्रावक कुलों का क्या हुआ, कुछ पता नहीं चलता। ऐसा अनुमान होता है कि सम्भवतः उन्हें अठसखा परवारों में विलीन कर लिया गया होगा। हाँ, मुझे यह स्मरण आता है कि अपनी जिनमूर्ति और प्रशस्तिलेख एकत्रण की यात्रा के समय सिरोंज (सरोजपुर) के बड़े मन्दिर में एक मूर्ति ऐसी अवश्य थो जिसकी पादपीठ पर प्रतिष्ठाकारक के नाम के आगे 'छसखा' पद अंकित था। वर्तमान में परवार अन्वय का यह भेद नामशेष मात्र है। (iii) चौसखा परबार-इस समय इनका अस्तित्व अवश्य है पर वे किसी कारण से तारणपंथी हो गये हैं। एक-दो बार उनको मूलधारा में लाने का प्रयत्न अवश्य हुआ है। वे इसके लिये उद्यत भी थे, पर कुछ प्रमुख भाइयों की अदरदर्शित के कारण ऐसा न हो सका। इतना अवश्य है कि दोनों ओर से वह कट्टरता अब नहीं देखी जाती । संभव है, कभी इनमें एकरूपता हो जावे । मुझे स्मरण है कि १९२८ में जब मैं बोना की जैन पाठशाला का प्रधान अध्यापक होकर गया था, उस समय वहाँ एक चौसखा परवार कुटुंब रहता था। उस समय एक प्रीतिभोज लेकर उस परिवार को अठसखा परवारों में मिला लिया गया था। इससे मालूम पड़ता है कि परवार समाज के जितने भेद है, उनमें एकरूपता होने पर भी परस्पर में बेटी-व्यवहार तो होता ही नहीं था, कच्चा खान-पान भी नहीं होता होगा। इसके फलस्वरूप परवार समाज उत्तरोत्तर क्षीण होता गया और उसके अनेक भेद नाम शेष हो गये। (iv) दो सखा परवार : हमने जितने जिनमंदिरों से मूर्तिलेख एकत्र किये है, उनमें ऐसी एक भी प्रतिमा नहीं मिली जिससे इस उपभेद विषयक जानकारी मिले। हाँ, तारण समाज के संगठन में एक अन्वय का नाम दो सखा भी है। इससे हम जानते हैं कि चौ सखा परवारों के समान इन्हें भी तारण-समाज को स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा होगा । यह प्रसन्नता की बात है कि इस समय परवार समाज में चौसखा के समान दो सखा का अस्तित्व तो बना हुआ है। (v) गांगड़ परवार : परवार समाज के १४४-४५ मूलों में एक मूल पद्मावती मूल के समाज का 'गांगरे' मूल भी है । इस मूल का गात्र गोइल्ल है । ऐसा लगता है कि गांगड़ परवार इसी मूल के होने चाहिये । पहले यह एक स्वतंत्र उपजाति बनी, बाद में समझा-बुझाकर अठसखा परवारों में सम्मिलित कर लिया गया। इसे ही 'गांगड़' मूल दे दिया गया जो सामान्य भाषा में 'गांगरे' हो गया। (vi) पद्ममावती परवार-परवार समाज के मूलों में एक पद्मावती भी है। इसका गोत्र वासल्ल है। पूरे समाज से यह कब अलग पड़ गया, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस आम्नाय में बीस पन्थ के उपासक भी पाये जाते हैं, इसी कारण सम्भवतः ये मुख्य शाखा से अलग पड़ गये हों। इनमें जैन-अजैन दोनों प्रकार के परिवार पाये जाते हैं । कहते हैं कि उनमें रोटी-बेटी व्यवहार भी होता है । इस विषय में हमने एक स्वतन्त्र लेख में विचार किया है। (vii) सोरठिया परवार-सोरठिया परवार वे हैं जो मुख्यतः सौराष्ट्र में निवास करते रहे । परन्तु सौराष्ट्र में इस समय जितने भी श्रावक कुल पाये जाते हैं, वे सब प्रायः श्वेताम्बर हैं । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सोरठिया परवारों का श्वेतांबरीकरण हो गपा है। पौरपाट अन्वय के विषय में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार अन्य जातियों में कोई उपभेद नहीं देखा जाता, वह स्थिति इस अन्वय की नहीं रही है । इस अन्वय में अनेक उपभेद थे। परन्तु उनमें एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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