Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३६२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड श्री लोढा जी ने अपने ग्रन्थ में यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'पौरपाट या पौरपट्ट' (परवार) अन्वय को मानने वाले मात्र दिगम्बर जैन ही पाये जाते है। इस उल्लेख से यह जान पड़ता है कि इस अन्वय के नामकरण में यह ध्यान रखा गया है कि उससे दिगम्बरत्व की मूलसंघ परम्परा का भी बोध हो!
'पौरपाट या पौरपट्ट' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है : पौर + पाट या पट्ट । पौर शब्द पुर शब्द से भी बना हो सकता है, पोरवा से भी बना हो सकता है तथा पुरा शब्द से भी बना हो सकता है। 'पूर' या पोरवा' स्थान विशेष को सूचित करता है और 'पुरा' शब्द प्राचीनता सूचक है। यह अन्वय के संगठन कर्ताओं ने इसके नामकरण में इन दोनों ही बातों का ध्यान रखा है। संगवे के उल्लेख से यह तो नहीं मालूम पड़ता कि इस अन्वय का मूल स्थान पारानगर कहाँ है । पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह तो पोरवा नगर है या पुरमण्डल ही है ।
यहाँ यह प्रश्न किया जाता है कि बुन्देलखण्ड में बसा हुआ यह अन्वय प्राग्वाट और उससे लगे हुए पोरबन्दर तक के प्रदेश का मूल निवासी है, यह कैसे माना जाय ? इसका एक समाधान तो यही है कि जब अन्वय का मूल स्थान ये ही क्षेत्र है, तो उसके लोग अन्यत्र कहाँ से आ सकते हैं ? दूसरे, भ० देवेन्द्र कीति (जिन्होंने बुन्देलखण्ड में परवार भट्टारक पद स्थापित किया) मूल में गुजरात के निवासी एवं परवार थे। इतना ही उन्होंने स्वयं सूरत के पास गान्धार में मूलसंघ कंदकंद आम्नाय का भट्टारकपट स्थापित किया, स्वयं उसके प्रथम भट्रारक बने और वहां अपने स्थान पर एक परवार बालक विद्यानन्दि को भट्रारक के रूप में स्थापित कर स्वयं चंदेरी में आकर परवार भट्टारक पट्ट की स्थापना कर स्वयं उसके प्रथम भट्टारक बने ।
गुजरात और उसके आस-पास के प्राग्वाट प्रदेश का बुन्देलखण्ड के साथ निकट का सम्बन्ध रहा है । इसका उदाहरण बडोह का जिनमन्दिर है। वहाँ प्राग्वाट अन्वय के अनेक गर्भगृहों में एक वासल्ल गोत्रीय प्राग्वाट परिवार का
के मध्यवर्ती जिनालय में भ० शान्तिनाथ की एक खडगासन प्रतिमा है। यही एक ऐसा मन्दिर है जो यह प्रख्यापित करता है कि प्राग्वाट अन्वय के श्रावक कुल ही उत्तर काल में 'परवार' नाम से प्रसिद्ध हुए।
पदा के प्रारम्भ में हुए श्री जिन तारण-तरण ने १४ ग्रन्थों में से एक 'नाममाला' भी रचा है। इसमें ऐसे पुरुषों के भी नाम आये हैं जो श्री तारण-तरण से सम्पर्क साधकर गुजरात-प्राग्वाट प्रदेश से चलकर बुन्देलखण्ड में आये और अनेक यहीं बस गये। इसी सम्बन्ध में 'जाति भास्कर' का उद्धरण पहले ही दिया जा चुका है। इसी प्रकार, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से १९६२ में प्रकाशित शाह बखतराम की ऐतिहासिक पुस्तक 'बुद्धिविलास' में पृष्ठ ८६ पर परवार अन्वय को 'पुरवार' लिखा है।
इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि परवार अन्वय के श्रावक कुल पोरबन्दर तक के प्राग्वाट-मेवाड़ प्रदेश के मूलवासी हैं और वे प्राग्वाट या पौरवाड़ ही है। फिर भी, उनको पौरवाड़ या पुरवार न कहकर परवार, पौरपाट, पौरपट्ट के नाम से क्यों अभिहित किया गया? उसके पीछे कोई हेतु तो होना ही चाहिये । मेरे विचार से इसका कारण सांस्कृतिक ही प्रतीत होता है। श्वेताम्बर साधुओं के राज्याश्रय से श्वेताम्बर श्रावक कुलों का प्रभाव बढ़ने लगा और मुल दिगम्बर श्रावक कुलों का प्रभाव घटने लगा। यहीं नहीं, दिगम्बरों का अपमान भी होने लगा, तब उन्हें विवश होकर अपनी आम्नाय की रक्षा के लिये धीरे-धीरे वहां से निकलकर बुन्देलखण्ड में शरण लेने के लिये बाध्य होना पड़ा। इस स्थिति में जो दिगम्बर कुल गुजरात एवं प्राग्वाट में शेष रह गये होंगे, उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा स्वीकार कर ली होगी। परवार अन्वय की लोक-प्रसिद्ध सात खाँ है, उनमें सोरठिया और जाँगड़ कुलों का यही हाल हुआ होगा, यह निश्चित है। यही कारण है कि इसके नामकरण में प्राग्वाट या पौरवाड़ शब्द का प्रयोग न कर इसे 'पौरपट्ट या पौरपाट' कहा गया है। इन पौरपाटों ने बुन्देलखण्ड में भी अपना आम्नाय सुरक्षित रखा क्योंकि अबतक प्राप्त मेरी जानकारी के प्रतिमा लेखों में कोई भी ऐसा नहीं मिला है जिसमें इस कुल श्रावकों ने मूलसंघ कुंदकुंद आम्नाय के अन्तर्गत बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ को छोड़कर अन्य आम्नाय ग्रहण किया हो। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह समूचा
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