Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जनों का सामाजिक इतिहास ३३९ यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि जैन समाज गांवों की तुलना में शहरों में ही अधिक बसती है। जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि नगरी व ग्रामीण जैनों की जनसंख्या का अनुपात लगभग ६० : ४० है। इसलिये अधिकांश जैन नगरीकृत हैं । लेकिन वे फारसी या यहूँदियों के समान उच्चतः नगरीकृत नहीं हैं।
यह भी स्मरणीय है कि जैन समुदाय भारत का एक प्राचीनतम समुदाय है। जैन धर्म का अस्तित्व भारतीय इतिहास के प्रारम्म से ही माना जा सकता है। उनकी यह प्राचीनता भी उनकी विशेषता है। यह तथ्य भारत के अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होता। यही नहीं, वे शत प्रतिशत भारतीय चरित्र के हैं। ये इस देश के सहज निवासी हैं और उनकी भाषा, धर्मस्थल, मिथक एवं महापुरुष --सब इसी देश के हैं । जैनों की, भारत से बाहर, किसी अन्यधर्म या संस्था से संबंद्धता नहीं है ।
संख्या में अल्प होते हुए भी जैनों का सदैव पृथक् अस्तित्व रहा है और अपनी विशेषताओं के कारण उन्होंने इसे बनाये भी रखा है। एक स्वतन्त्र धर्म होने के नाते, इसके अनुयायियों का पवित्र विशाल साहित्य है, दर्शन है, और अहिंसा के मूलभूत सिद्धान्त पर आधारित आचरण संहिता है। वस्तुतः जनों की आचार-विचार सरणी अहिंसा की धारणा पर ही आधारित है। मारत के अनेक धर्म अहिंसा के सिद्धान्त को महत्व देते हैं, पर जैन उसके आधार पर निर्मित नियमों के परिपालन को सर्वाधिक महत्व देते हैं।
प्राचीनता के अतिरिक्त जनों की एक विशेषता और है-यह सदा से अविच्छिन्न रही है। विश्व में बहुत कम समुदाय ऐसे होंगे जो इतने दीर्घकाल तक अविच्छिन्न बने रहें हों। सच मुच ही, यह आश्चर्य की बात है कि भूतकाल के अनेक धर्मों और पन्थों का नामोनिशां नहीं बचा, जैन कैसे अपनी अविच्छिन्नता बनाये हुए हैं। उनका यह सदीर्घ अस्तित्व उनकी विशेषता ही मानी जानी जाहिये। जनों को अतिजीविता
जैनों की सुदीर्घकालीन अविच्छिन्नता उनकी एक प्रशंसनीय सफलता है। जैन और बौद्ध भारत में श्रमण संस्कृति के प्रमुख स्तम्भ रहे हैं ! फिर भी, इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि बौद्ध धर्म भारत में लुप्त हो गया और अन्य देशों में फैला, पर जैन धर्म अभी भी भारत का एक जीवन्त धर्म है और संभवतः श्रीलंका का छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं फैल पाया । जैनों की इस अविच्छिन्न अतिजीविता के अनेक कारण हैं। (अ) सामाजिक संगठन
जैनों की अतिजीविता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण उनकी उत्तम सामाजिक व्यवस्था रही है। इस संगठन का केन्द्रबिन्दु जनसाधारण रहा है। जैन समुदाय परम्परागत रूप से चार अंगों में विभाजित हैं -साधु या पुरुष तपस्वी, साध्वी या स्त्री-तपस्वी, भावक या पुरुषजन एवं श्राविका या स्त्री जन । इन सभी अंगों में परस्पर में प्रगाढ सम्बन्ध है। जैनों में साधु और सामान्य जन के लिये एक ही प्रकार के ब्रत या धर्म-नियम माने गये हैं। यह अवश्य है कि साध को गृहस्थ की तुलना उनका पालन अधिक कठोरता एवं ईमानदारी से करना पड़ता है। गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह साधुओं के आहार-विहार की पूरी तरह व्यवस्था करे। इस दृष्टि से साधु-संघ पूर्णतः गृहस्थ समाज पर आश्रित है । इन साधुओं ने प्रारम्भ से ही जनों के धार्मिक जीवन को नियन्त्रित किया है और इसी प्रकार गृहस्थों ने भी साध के चरित्र को उत्तम बनाये रखने में अपना योगदान किया है । इसीलिये यह आवश्यक है कि साधु भौतिक समस्याओं से पूर्णतः विलगित रहे और वह अपने तपस्वी जीवन के अन्य स्तर को कठोरता पूर्वक बनाये रखे। यदि साधु इस स्तर के लिये कमजोर प्रमाणित होता है, तो उसे इस पद से विमुक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में जर्मन विद्वान
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