Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैन संस्कृति प्रतिष्ठापक-आचार्य कुंदकुंद प्राग्वैदिक पुरुष व्रात्य (द्र विड ' श्रमण') थे ३३७ उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत की मूल श्रमण संस्कृति के सनातन उत्तररूप आहेत या निम्रन्थ या जैन संस्कृति में मगध के लम्बे दुभिक्ष के कारण आरव्य तथा उत्तरकालीन दुर्भिक्षों से आयी सुखशीलता या शिथिलता तथा बनवास के स्थान पर ग्रहोत उपाश्रय-निवास के कारण सम्प्रदाय उत्पन्न हुए, किन्तु आम्नायाचार्य कुन्दकुन्द को दृढ़ता ने मूलसंघ या संस्कृति को समग्र नियन्त्रण द्वारा बचाया था। इसका फल यह हुआ कि शाश्वतिक विरोधियों में भी समन्वय हुआ और ब्राह्मण संस्कृति ने आरण्यक तथा उपनिषद् काल में मोक्ष, तप, अध्यात्म, शिश्नदेवत्व तथा दर्शन को मल (श्रमण) संस्कृति से लिया और अध्यात्म ज्ञान-ध्यान-तप मय श्रमण संस्कृति ने भी कर्मकाण्ड को ब्राह्मण या वैदिक संस्कृति से लिया। इस आदान-प्रदान द्वारा दिगम्बर बाबा शिव 'महादेव' हो गये । यद्यपि ब्राह्मण संस्कृति उन्हें संहार (विनाश) का देव कहती है, किन्तु उनका रूप स्पष्ट कहता है कि संसार को समाप्ति निग्रंन्थता द्वारा ही होती है । सृष्टि (प्रजापतित्व) रक्षक (विष्णुत्व) संसार को बढ़ाने वाली हो हैं। यांत्रिक हिंसा-प्रधान ब्राह्मण संस्कृति ने ही महाभारतयुग तक आते-नाते 'अहिंसा परमोधर्मः' उद्घोष किया।
स्पष्ट है कि श्रमणजन इस भारतभूमि के मूल निवासी या प्राग्वैदिक पुरुष थे तथा उनकी संस्कृति वही थी जिसे मलसंघ के प्रथम व्याख्याता तथा पालक कुन्दकुन्दाचार्य की उपलब्ध कृतियां करतल इस कालचक्र में हिरण्यगर्भ ऋषभदेव से आरब्ध तथा ऐतिहासिक तीर्थंकर सुब्रत, नैमि, पार्श्व तथा महाबीर एवं इनके समकालीन गौतमबुद्ध के पूर्ववर्ती आजीवक, आदि भारतीय मतों का विविध-प्राकृतो में उपलब्ध आंशिक विवरण हो स्पष्ट कहता है कि आर्य (आवजक = नोमेड) पशुपालक, कर्मकाण्डी तथा आक्रमक ब्राह्मणों या वैदिक संस्कृति के पूर्ववर्ती श्रमण थे और उनकी मूल विकसित वैज्ञानिक संस्कारों का तत्त्वज्ञान वही था जो गुणधर, धरसेन, भूतबलि-पुष्पदन्त, भद्रबाहु के गमक शिष्य आ० कुन्दकुन्द की जनभाषा (प्राकृत) में उपलब्ध है ।
मैं पुराने आचार्यों की अवज्ञा नहीं करना चाहता, किंतु यह कहना अवश्य चाहूँगा कि जिन आचार्यों ने विशिष्ट उपलब्धियों के न होने का प्रतिपादन किया, उन्होंने जैन परंपरा का हित नहीं किया। उससे अहित हो हआ। साधकों के मन में होनभावना पैदा हो गई और उनका प्रयत्न शिथिल हो गया।
-आचार्य तुलसी
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