Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३३६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
का अल्प-हिंसा. असत्य का अल्प-सत्य, आदि करके याज्ञिकी हिंसा, अल्पहिंसा होने के कारण, श्रमण धर्म-सम्मत क्यों नहीं है ? अर्थात् इसे मानने पर 'व्रात्य' या 'अज्जि' (वर्जन) के मूलरूप का ही विघात हो जायेगा । मूल आम्नायाचार्य
___भारत की सनातन या मूल संस्कृति मोक्षोन्मुख जिनकल्प दिगम्बर धर्म था। इसके लिए ही मूलसंघ शब्द का उपयोग हुआ था। यह कुन्दकुन्दाचार्य के प्ररूपण के बाद ईसा की चौथी शती तथा पूर्व के शिलालेखों से भी सिद्ध है। यही कारण है कि उत्तरकालीन मुख्य चारों (द्रविड़ नन्दि, सेन तथा काष्टा) संघ अपने आपको कुन्दकुन्दान्वयी मानकर कुन्दकुन्दचार्य से ही सम्बद्ध करते हैं । अतः गमक गुरुवर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के धुरन्धर शिष्य कुन्दकुन्द का समय स्थविरकल्पी श्वेताम्बरों को प्रथम (पाटलिपुत्र) आगमवाचना अर्थात् अंगसंकलन प्रयास का समकालीन हो सकता है । श्वेताम्बर वाङ्मय सम्मत स्थूलभद्रादि द्वारा प्रस्तावित छेदोपस्थापना प्रयास की विफलता के बाद उत्तर भारतीय जैन श्रमणों में सचेलता ही नहीं, १४ उपकरणों का चलन हो चुका था तथा दुर्भिक्ष के कारण आहार-संकलन तथा उपाश्रय में आकर गोल बनाकर खाना तथा भिक्षा को दूसरे समय के लिए बचा कर रखना तथा बुद्ध की मज्झिमा वृत्ति से प्रभावित होकर स्त्री-प्रवृज्या तथा मुक्ति की मान्यता भी बद्धमूल हो गयी थी। इसीलिए शिश्नदेव के अनुयायी आम्नायाचार्य अपने बोधप्राभृत में कहते हैं-'जिनमार्ग या कल्प में वस्त्रधारी की मुक्ति नहीं है चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो । दिगम्बरता ही विशुद्ध मोक्षमार्ग है, शेष उन्मार्ग हैं। अनगार होने के लिए समस्त परिग्रह का त्याग अनिवार्य है। जो अल्प (फालक) या बहुत (चौदह उपकरण) परिग्रह रखता है, वह जिन शासन (कल्प) में गृहस्थ ही है।" शास्त्राविरोधी
बोधपाहुड और समयपाहुण में श्रुतकेवली का स्मरण केवल गुरुभक्तिपरक ही नहीं है, अपितु यह कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा मूलधर्म प्रतिपादन को प्रामाणिकता का उद्घोष है । वे कहते हैं कि वीरमुख से निकल कर अन्तिम श्रतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्नरूप से प्रवाहित, जिनवाणी ही उनकी कृतियों का उद्गम स्रोत है। ब्राह्मण संस्कृति के साथ आये भाषागत चौकापन्थ (जन्मना श्रेष्ठता) के, संस्कृतरूप से चलने पर जैनाचार्यों ने भी संस्कृत को अपनाया एवं मूलाम्नायाचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्राकृत में ग्रथित श्रमण-तत्त्वज्ञान की अजस्र धारा बहायी थी तथा उन्हीं (ब्राह्मणों) की मान्यता में उनकी मान्य भाषा में समझाने के लिए कहा था :
'मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमौ गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तुमंगलम् ॥ श्रमण या निग्रन्थ के 'आगम-चक्खू साहू' के समान गृहस्थ के भी षडावश्यकों में साधुओं के 'स्वाध्याय' तप का विधान है। फलतः शास्त्रप्रवचन के आरम्भ में हो उक्त श्लोक की कहकर प्रवचनीय या पाठ्यग्रन्थ के प्रारम्भ में यह शपथ (अस्य मूलकर्ता श्री सर्वज्ञदेवः तदुत्तर ग्रन्थकर्ता गणधर देवाः, प्रतिगणधरदेवा, तेषां वचोऽनुसारं श्री कुन्दकुन्दा. चार्येण विरचितमिदं-वाचकः सावधानतया वाचपतु तथा श्रोतारः सावधानतया शृण्वन्तु) कही जाती है। गुणधर, पुष्पदंत-भूतवलि ने भी यही किया है। किन्तु स्थविरकल्प में ऐसा नहीं है। बलभो-वाचना के बाद स्थविरकल्पियी को मान्य ग्यारह अंगों के संग्राहक देवद्धिगणि स्पष्ट लिखते हैं 'वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष बाद हुए दुर्भिक्ष के कारण बहुत से मनियों के मर जाने पर तथा श्रुत का बहुभाग खण्डित हो जाने पर श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर भावी भव्यों के उपकार के लिए श्रीसंघ के आग्रह पर (मैंने) आचार्यों में से वचे उस समय के साधुओं को बलभी में बुलाया और उनके मुख से खण्डित होने से कम-बड़ टूटे या पूरे आगम के वाक्यों को अपनी समझ के अनुसार संकलन करके पुस्तकरूप दिया है।'
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