Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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मेरा जीवन-वृत्त ५९
व्याकरण ज्ञान कम था। उसकी पूर्ति को मैं बनारस चला गया और तीन वर्ष वहाँ व्याकरण साहित्य व न्याय की शिक्षा ली। सन् २० में गांधी जी का असहयोग आन्दोलन शुरु हुआ। वे काशी आये और उनके प्रभाव से हमने संस्कृत विश्वविद्यालय की सरकारी परीक्षाओं का बहिष्कार कर दिया। पं० कैलाश चंद जी ने भी बहिष्कार कर दिया। वे मोरेना गये और में कटनी आ गया। उनके आग्रह से मैं भी पुनः मोरेना गया और दोनों ने एक साथ सिद्धांत के उच्चतम कोर्स को पूरा किया। मोरेना छोड़ने के पूर्व एक घटना घटित हुई। मेरे पिता जी अपने दो सहयोगी ब्रह्मचारियों के साथ बुंदेलखंड में धर्म प्रचार करते हुए ककरहटी पंचकल्याणक के बाद छतरपुर स्टेट के एक छोटे ग्राम में बीमार पड़ गये, लंघनें हो गई। दोनों साथी भी बीमार हो गये। मुझे तार लिखा। मैं बड़ी कठिनाई से वहाँ पहुँचा, समस्या जटिल थी, पैसा पास न था। अपनी सब परिस्थिति अपने मित्र पं० कैलाशचन्द जी को पत्र द्वारा लिखी। वे वहाँ से कटनी होकर लाला रतनचंद जी कटनी से खर्च योग्य रुपया लेकर भटकते-भटकते मेरे पास पहुँचे । मेरे को रोना आ गया। जिसने जीवन में भी जंगल न देखा हो, वह २० साल की उम्र में ऐसी बीहड़ रास्ता पार कर मेरी दुरवस्था में साथी हुआ। उसका स्नेह मैं जीवन भर नहीं भूल सका। तीनों ब्रह्मचारियों को वहाँ से लाया। जबलपुर में भी अच्छे न हए। मेरे पिता दो दिन पूर्व संन्यास लेकर स्वर्गधाम पधारे।
यह स्मरण रहे कि उस समय काशी विद्यालय में धर्मशास्त्र के पठन-पाठन की व्यवस्था न थी। चूंकि मैं गोम्मटसार जीवकांड तक पढ़ कर काशी गया था, अतः मैं मंत्री जी की आज्ञा से छात्रों को, जो छोटी कक्षाओं के थे, उन्हें धर्म शिक्षण देने का भी ( अवैतनिक ) कार्य करता था। मोरेना की शिक्षा समाप्त कर मैं कटनी
आ गया। काशी विद्यालय के मंत्री थे श्री बाबू सुमति लाल जी। उनका पत्र आया कि स्या० महावि० में अब आप धर्माध्यापक का कार्य करें, ५०/- मासिक वेतन हम आपको देंगे। चूंकि कटनी में भी विद्यालय था और मैं वहाँ पढ़ाने लगा था, पर काशी विद्या-केन्द्र है, अतः उसका आकर्षण था आगे मार्ग में बढ़ने का। मैंने उसे स्वीकार कर लिया और अपने अभिभावक श्री लाला जी (रतन चंद जी) को पत्र दिखाया । उन्होंने कहा कि कहीं मत जाओ। मैंने तुम्हें इसी हेतु पढ़ाया था कि जो दान हमने यहाँ पाठशाला में शिक्षा के लिए निकाला है, उसकी पूर्ति करना है। ५०।- हम भी देंगे, यहाँ रहो। मैंने कहा कि समाज की सर्विस मुझे नहीं करना , काशी की बात दूसरी है। उन्होंने कहा कि तुम्हें सारा खर्च हम देंगे, जैसा कि आज तक दिया है। मैंने इसे स्वीकार किया, मेरा तो लालन-पालन ही उन्होंने किया है। मेरे पिता की मेरे विषय की सारी चिताएँ भी अपने ऊपर ले ली थीं और भविष्य भी मेरा अपने हाथ में रख रहे हैं और समाज की नौकरी से मुझे बचा रहे हैं, तब मन के मुताबिक पूरी मुराद हो रही है । कृतज्ञता का भी यही तकाजा है। मैंने पूर्ण रीत्या आत्म समर्पण कर दिया। श्री सुमति लाल जी मंत्री, काशी विद्यालय को पत्र दिया कि मैं यही काम करने लगा हूँ, आप मेरे साथी पं० कैलाश चंद जी को बुला लें, वे आ जायेंगे। मैं भी पत्र उनको दे रहा हूँ। फलतः पं० कैलाश चंद जी काशी में प्रधानाध्यापक बने और मैं यहाँ। सन १९२२ में मेरा विवाह मेरे अभिभावकों और रिस्तेदारों ने कर दिया था और सन् १९२३ में हमने शिक्षा पूर्ण कर उस स्थान पर कार्य किया।
सन् १९२५ में मैंने संस्कृत छात्रों को उद्योग सिखाने की दृष्टि से कुछ मोजा, बनियान बनाने, कपड़े सीने आदि की शिक्षा का प्रबन्ध संस्था में किया पर उसमें जैसी चाहिये, सफलता नहीं मिली। तब मैंने आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत छात्रों को उपयुक्त मानी और वह विद्यालय में प्रारम्भ की। कानपुर कन्हैयालाल जी वैद्य के पास
मचंद को भेजा जिसे मासिक वत्ति दादा जी ने दी। दो छात्र कलकत्ता श्री बाबूलाल जी राजवैद्य के पास भेजे । उनको भी मासिक वृत्ति दादा जी ने दी। ये शिक्षा प्राप्त कर आ गये । देवचन्द्र जी कटनी में अपना दवाखाना चलाते थे जो आज भी उनके बाद उनके सुपुत्र चला रहे हैं। उनके छोटे भाई प्रेमचन्द्र जी आयुर्वेदाचार्य भी कर चुके
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