Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जीवविचार प्रकरण और गोम्मटसार जीवकांड २६५
लक्षण, आकार, निवास आदि का वर्णन करते हुए बताया है कि यह जीव कायरूपी कावटिका के माध्यम से कर्म-भार का वहन करता है। योगमागंणा के अन्तर्गत पर्याप्ति और शरीर नामकर्म के उदय से होने वाले मन-वचन-काय की प्रवत्तियों की कर्म-ग्राहिणी शक्ति को योग बताया गया है। मन और वचन योग सत्य, असत्य, उभय, अनुभय रूप से चार कोटियों में है। इनमें द्रव्यमन अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदय-स्थान में अष्ट-दल-कमल के आकार का होता है जिसकी क्षमता को भावमन कहते हैं। काययोग औदारिकादि कार्मणान्त पाँच प्रकार का होता है। वेदमार्गणा में वेदकर्म, निर्माण तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से होनेवाले तीन द्रव्य-भाव वेद-पुरुष, स्त्री व नपंसक बताये गये हैं। इनमें उत्कृष्ट भोग एवं उत्तम गुण वाला पुरुष, स्व और पर को दोषों से आच्छादित करनेवाली स्त्री वेद, भट्रे में पकती हई के समान तीब्रकषाई एवं उभयवेदरहित नपुंसक वेद माना है। लक्षण के अतिरिक्त विभिन्न वेद के जीवों का प्रमाण भी दिया गया है। कषायमार्गणा के अन्तर्गत कर्म-बन्ध एवं फल की शुभाशुभता की प्रतीक चार कषायों को शक्ति (चार प्रकार), लेश्या (१४ प्रकार), आयु बन्ध एवं प्रमाण के आधार पर वणित किया गया है। ज्ञानमार्गणा के अन्तर्गत पाँच ज्ञानों का विशद निरूपण है। इसमें श्रुतज्ञान का विवरण सर्वाधिक है। संयममार्गणा के अन्तर्गत मोहनीय कर्म क्षय या उपशम से व्रत धारण, समिति पालन, कषाय निग्रह, त्रि-दण्ड त्याग एवं इन्द्रिय जय रूप संयम के भावों का होना बताया गया है। जीव संयत. देशविरती एवं असंयती हो सकते हैं। संयम के सात भेदों के विवरण के साथ विभिन्न कोटि के संयमी जीवों की संख्या का भी विवरण है। दर्शनमागंणा में चार दर्शनों की परिभाषा और संख्या का निरूपण है । लेश्यामागंणा की अडसठ गाथाओं में लेश्याओं का सोलह अधिकारों में वर्णन है और कषायानरन्जित योगवत्ति को लेश्या कहा गया है। यह जीव को पुण्य-पाप कर्मों से लिप्त कराती है। यह द्रव्य-भाव रूप होती है । यह वर्णन उत्तराध्ययन के ग्यारह द्वारों के विपर्यास में तुलनीय है।
भव्यत्वमागंणा में अनन्त चतुष्टय रूप सिद्धि के आधार पर भव्यत्व-अभव्यत्व की परिभाषा दी गयी है । इसमें कर्म और नोकर्म द्रव्य परिवर्तन की भी चर्चा है। सम्यक्त्वमार्गणा में षट् द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकायों का नाम, लक्षण. स्थिति, क्षेत्र, संख्या, स्थान एवं फल के आधार पर सात शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णन किया गया है। इसमें अजीव दव्य का वर्णन विशेष है। पङ्गल के तेइस वर्गणात्मक भेद, कुन्दकुन्द वणित छह एवं चार भेद के अतिरिक्त पथ्वी, जल, छाया. चरिद्रिय विषय, कर्म और परमाणु के भेद से छह अन्य भेद भी बताये गये हैं। उमास्वामी के समान द्रव्यों के कार्य भी बताये गये हैं। संक्षीमार्गणा के अन्तर्गत नो-इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान या संवेदन को संज्ञा बताकर उसे शिक्षा, क्रिया, उपदेश एवं आलाप के रूप में चार प्रकार का बताया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में संज्ञाओं की संख्या दस तक बताई गई है। आहारमार्गणा के अन्तर्गत शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, कायरूप धारण करने योग्य जो कर्म वर्गणाओं के ग्रहण को आहार कहा गया है ।
मार्गणाओं के अतिरिक्त जीवकांड में भावात्मक प्रकृति व विकास को ध्यान में रखकर चौदह गणस्थानों का भी विशद निरूपण है। वस्तुतः यह बताया गया है कि जीवों से सम्बन्धित बीस प्ररूपणाएँ मार्गणा एव गुणस्थान-दो ही कोटियों में समाहित हो जाती है। इन दोनों का ज्ञान आध्यात्मिक विकास के लिये लाभकारी है। उपसंहार
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि रचनाकाल के अल्प अन्तराल के बावजूद भी दोनों ग्रन्थों की विषय-वस्तु में पर्याप्त अन्तर है । एक ओर 'जीव विचार' में केवल 'जीवों का वर्णन है, वहीं जीवकांड में 'जीवों के साथ अनेक जीवसम्बद्ध प्रकरणों का वर्णन है। 'जोव विचार' वर्गीकरण प्रधान है, जबकि जीवकांड 'वर्गीकरण के साथ व्यापक परिवेश का निरूपण करना है। इसका वर्णन आध्यात्मिक विकास की श्रेणियों पर भी आधारित है। जोवकांड में प्रायः प्रत्येक विवरण में संख्यात्मकता पाई जाती है, गणितीय संदृष्टियाँ पाई जाती है । ऐसा प्रतीत होता है कि 'जीवकांड' का दृष्टिकोण
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