Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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रोगोपचार में गृहशांति एवं धार्मिक उपायों का योगदान डा. ज्ञानचन्द्र जैन रोडर, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, लखनऊ
इस अनादिनिधन स्रष्टिचक्र में प्राणिमात्र सदैव से पण्डित दौलतराम के अनुसार, दुःख से भयभीत होकर सुख प्राप्ति की अभिलाषा हेतु निरन्तर प्रयास करता आ रहा है। जीव की इस दुःख-कातरता को देखकर हमारे करुणानिधान निर्ग्रन्थ गुरु-प्रवरों ने भी उसे सुखकर मार्ग का दिशा निर्देश किया है। अनन्त-सुखागार मोक्ष प्राप्ति हेतु भो धर्म साधना के लिये शरीर धारणायं आहार लेना अनिवार्य आवश्यकता है। यही आहार रोगोत्पत्ति में भी कारण होता है । इसी से साधना में बाधा पड़ती है। इसलिये धर्म-साधना में सहायक शरीर को स्वस्थ रखने के लिये आचार्यों ने दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतचर्या के अनुसार आहार-विहार का पालन करते हए पथ्यापथ्य-पूर्वक किया है। यदि व्यक्ति कदाचित अस्वस्थ भी हो जावे, तो औषधि के साथ ही पथ्य व्यवस्था पू सके । अपथ्याहार से स्वास्थ्य-लाभ न हो पाने से जीव अभीष्ट सिद्धि नहीं कर पायगा। हमारे आचार्यों ने तात्विक दृष्टि से गम्भीर चिन्तन करते हुए सखप्राप्ति हेत ग्रहण की अपेक्षा त्याग या दान को अत्यधिक महत्व दिया है। दोनों में भी धर्म-साधना-सहायक स्वास्थ्य के लिये औषध दान को श्रेष्ठ बताया है। इन्द्रिय सख-रसी जीव को प्रवत्ति के विषय में । गुरु प्रवर सम्यक्-रीत्या यह जानते थे कि कितना भी समझाने पर कम बन्धाधोन यह जीव विषयसुख के आकर्षण में फंसकर अपना अहित करता रहेगा। वस्तुतः विवेक बुद्धि ता कठिन साधना तथा सद्गुरु कृपा से ही व्यक्ति को प्राप्त होती है । यही कल्याण पथ में अग्रसर होने में सहायक होती है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें स्पष्टतया गोचर हो रहा है कि आज का मानव बुद्धि एवं धर्मशून्य आचरण कर नाना प्रकार की व्याधियों को आमन्त्रित कर सदैव दुःखी बना रहता है। अवस्था एवं परिस्थिति के अनुसार आचार्यों ने चिकित्सा-सौकर्यार्थ व्याधियाँ चार प्रकार की मानी हैं : सुखसाध्य, कष्टसाध्य, याप्य तथा असाध्य । इनमें सबसे महत्वपूर्ण व्याधि 'श्वास रोग' की चिकित्सा का विवेचन यहाँ अपेक्षित है। हम क्षण-क्षण यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि यदि हमें थोड़े समय के लिये भो वायु उपलब्ध न हो, तो श्वासावराध के कारण दम घुटने लगती है और हमारी मृत्यु हा सकती है। इसलिये जीवन धारण के लिये वायु अत्यन्त आवश्यक तत्व है। यह तत्व हमें श्वास क्रिया द्वारा प्राप्त होता है । श्वास क्रिया की विकृति ही 'श्वास व्याधि' की जनक है। इस व्याधि के महाश्वास, ऊवश्वास, छिन्नश्वास, तमकश्वास तथा क्षुद्रश्वास नामक पांच भेद हैं। इनमें प्रथम तीन असाध्य होने के कारण अ-चिकित्स्य हैं। क्षुद्रश्वास श्रमजन्य होने से चिकित्सा द्वारा सुगमता से ठोक हो जाती है। तमक श्वास याप्य होने से रोगा और चिकित्सक-दोनों के लिये महत्व की है। याप्य व्याधि का शमन चिकित्सा एवं पथ्य-दोनों पर निर्भर करता है। कभी-कभी चिकित्सा से लाभ होने पर रोगी अपने को स्वस्थ मान लेता है और पुनः अपथ्य सेवन करने लगता है। इससे रोग विगड़ जाता है और 'दमा दम के साथ जाता है' जैसी कहावत चरितार्थ होने लगतो है। इसलिये श्वास रोग का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है।
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