Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३२६ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड (६) मूर्तिकार का नाम एवं विवरण एवं प्रतिष्ठा का स्थान विशेष
यह पाया गया है कि प्रायः मूत्तिलेखों में उपरोक्त छहों कोटि की सूचनायें एक साथ विरले ही पाई जाती हैं। छतरपुर के दि० जैन बड़े मंदिर जी में भ० पाश्र्वनाथ की प्रतिमा पर उत्तीर्ण एक ऐसा ही विरल लेख निम्न है :
(अ) तिथि व सम्बत् : सम्वत् १५४२ वर्षे फागुन सुदी ५ गुरौ । (ब) स्थान : श्री गोपाचल दुर्गे । (स) राजन्य नाम : महाराजाधिराज श्री मांड्यसिंह राजा। (द) जैन संघ नाम : श्री काष्ठासंघे । (य) भट्टारक नाम : भट्ठारक श्री गुणनदेवः ।
(र) प्रतिष्ठापक विवरण : तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे सामहराजा तत्भार्या कोल्ही, पुत्र ४ साहणि । इसमें शिल्पकार के नाम को छोड़कर अन्य सभी सूचनायें पाई जाती है । अन्य मूर्तियों पर उपरोक्त में तीन-चार प्रकार की ही सूचनायें मिलती है। सम्बत् १५४८ में मुंडासा (राजस्थान) निवासी जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख इसी श्रेणी के हैं । इनमें राजाओं एवं शिल्पकार के नाम नहीं हैं। एक लेख देखिये :
(अ) तिथि व संवत् : संवत् १५४३ वैशाख सुदो ३ (वार नहीं है)। (ब) स्थान : सह सु (मु) रासा श्री (मुडासा राजस्थान में है) (स) जैन संघ नाम : श्री मूलसंघे (व) भट्टारक नाम । श्री जिनचंद्रदेव शाह (य) प्रतिष्ठापक नाम : जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रणमते
इन लेखों के सामान्य एवं तुलनात्मक अध्ययन से हमें जो जानकारी मिलती है, वह हमारे सामाजिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व का सम्वर्धन करती है । इन लेखों की उपयोगिता वर्तमान में अनेक प्रकार से सिद्ध हो रही है। उदाहरणार्थ, शास्त्री ने केसरिया-ऋषभदेव एवं कंभोज-बाहबली क्षेत्रों के दिगम्बर होने की पष्टि इन्हीं लेखों के आधार से की है । अनेक विवादों के समय ऐसे लेख काम आते हैं । इसीलिये उन्होंने सुझाया है कि भारत के सभी स्थानों पर विद्यमान जैन-मूर्तियों के लेखों को मुद्रित कराया जावे।
बुन्देलखण्ड के जैनतीर्थों तथा अन्य स्थानों पर स्थित मन्दिरों की जिनमूर्तियों के लेखों के आधार पर शास्त्री मे यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रारम्भ में बारहवों सदी तक इस क्षेत्र में गोलापूर्व जाति का महत्व रहा है क्योंकि इस अन्वय के श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमायें ही यहाँ अधिकांश में उपलब्ध होती हैं। नैनागिर (११०९), बहोरीबन्व (११८७), पपौरा (१२०२) एवं अहार (१२३७) के लेखों से यह तथ्य पुष्ट होता है । बाद में इस भूभाग में परवार आदि अन्य जातियों के द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें मिलने लगती है । इससे यह अनुमान सहज लगता है कि इस क्षेत्र मे परवार जाति के लोग सम्भवतः गुजरात से बाद में आए। इसी प्रकार इन लेखों के सूक्ष्म या गहन अध्ययन से अन्य निष्कर्ष भो प्राप्त किये जा सकते है । हम यहां तीर्थकर-मान्यता और भट्टारक-परम्परा पर, इन लेखों से आधार से, कुछ चर्चा करेंगे। बहुमान्य तीर्थकर
___ जैन धर्म वर्तमान युग में चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा को स्वीकर करता है । इनकी मूर्तियां ईसा-पूर्व सदियों में बनना प्रारम्भ हुई। विद्वानों की यह मान्यता है कि मूर्तियों पर तीर्थकर-पहिचान-परक लांछनों की परम्परा पर्याप्त उत्तरवर्ती है। इसीलिये अनेक प्राचीन प्रतिमाओं में लांछन (चिह्न) नहीं पाये जाते। कुछ लोगों का ऐसा भी कथन है कि अन्य धर्मों (हिन्दू, बुद्ध, पारसी एवं ईसाई) के समान जैनों में भी चौबीसी की परम्परा उत्तरकाल में विकसित हुई है। इसके विकास के उपरान्त ही लांछनों की प्रक्रिया चली होगी। सारणी १ से प्रकट होता है कि इस बुन्देलखण्ड क्षेत्र में
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