Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

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Page 473
________________ बुन्देलखंड के जैन तोर्थ : जिनमूर्ति - लेख -विश्लेषण : तीर्थकर मान्यता एवं डॉ० एन० एल० जैन, जैन केन्द्र, रीवा क्षेत्रों में ऐसे महापुरुषों का जन्म होता शान्ति की प्राप्ति के लिये मार्गदर्शी एवं विश्व के इतिहास में सदैव ही विभिन्न रहा है जिन्होंने दुखी मानव को सांसारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से सुख और प्रेरक उपदेश दिये। संसार को समुद्र की उपमा देकर उसकी अथाह एव भयंकर गहराई को पार करने में इन उपदेशों ने मानव की महान् सेवा की है । ऐसे व्यक्तियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग धर्मतीर्थ कहलाया । ये महापुरुष जगम तीर्थ कहलाते हैं । इसके क्रियाकलापों से, पञ्चकल्याणकों से सम्बन्धित विशिष्ट स्थान, क्षेत्र व भूमियां स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । ये स्थावर तीर्थ अनेक प्रकार के होते हैं और उन्हें मंगलमय माना जाता है । उनकी यात्रा को पुण्यमय एवं ध्यानसाधक कहा जाता है । इनकी यात्रा के समय महापुरुषों के पुण्य कार्यों का स्मरण और तदनुरूप आचरण की शुभ प्रेरणा प्राप्त होती है, अन्तरंग उदार होता है, भावनायें निर्मल होती हैं । भावशुद्धि के प्रेरक ये तोर्थस्थान जैन संस्कृति के प्रतीक के रूप में सदा से ही माने जाते रहे हैं । यहो कारण है कि भारत में सर्वत्र इनका सद्भाव पाया जाता है । इनके अस्तित्व से यह भी अनुमान लगता है कि जैन धर्म एवं संस्कृति समग्र भारत में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित रही है । वर्तमान में तो इसका महत्व और विस्तार और भी व्यापक होता जा रहा है । भट्टारक परम्परा प्रारम्भ में तीर्थ स्थान शब्द धार्मिक दृष्टि से प्रेरक स्थानों को निरूपित करता रहा है । सामान्यतः दो प्रकार के तीर्थस्थानों को इस दृष्टि से महत्व प्राप्त है : सिद्ध तीर्थ और अतिशय तीर्थ । आजकल 'तीर्थ' शब्द के स्थान पर 'क्षेत्र' शब्द अधिक प्रयुक्त होता है । सिद्ध क्षेत्र ऐसे स्थान हैं जहाँ से व्यक्तियों एवं महामानवों ने अपना चरम आध्यात्मिक विकास कर परम पद पाया हो। ऐसे क्षेत्रों में पारसनाथ, चम्पापुर पावापुर ( बिहार ), गिरिनार, तथा कैलाश (गुजरात) प्राचीनता की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं । बुन्देलखण्ड के कुंडलगिरि, द्रोणगिरि, नयनगिरि तथा श्रमणगिरि के नाम सिद्ध क्षेत्रों में गिने जाते हैं । यह सिद्धक्षेत्रों की कोटि का उत्तरवर्ती विकास है । इनके विपर्याप्त में, अतिशय क्षेत्र ऐसे स्थान हैं जहाँ भक्तों, श्रद्धालुओं या दैवी कारणों से धर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली कुछ प्रभावक घटनाएं हुई हों, होती हों, या हो रही हों । इन क्षेत्रों की संख्या सिद्ध क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। श्री महावीर जी, पपौरा, अहार, खजुराहो आदि के नाम इस कोटि के क्षेत्रों में लिये जा सकते हैं। इन अतिशय क्षेत्रों को यात्रा भी शास्त्रों में पुण्यकारी मानो गई है । वादोम सिंह, शुभचन्द्र एवं वसुनन्दि ने इनका महत्व बताया है । भारत का अतीत धर्मप्रधान एवं आध्यात्मिक गरिमा का संवर्धक रहा है। लेकिन इसका वर्तमान कुछ परिवर्तित प्रतीत होता है । आज धर्मक्षेत्रों के साथ कुछ अन्य प्रकार के क्षेत्रों का भी ज्ञान एवं उद्भावन हुआ है । इनमें ऐतिहासिक, पुरातात्विक (देवगढ़), एवं कलाक्षेत्र तो आते हो हैं, अब इनमें शिमला, कश्मीर आदि के समान प्राकृतिक सुषमामय पर्यटन क्षेत्र एवं भिलाई, टाटानगर, विशाखापटनम्, रूरकेला के समान औद्योगिक क्षेत्र भी समाहित होते लगे हैं । इनकी यात्रा हमारे वर्तमान की प्रगति एवं मनोरमता का अनुभव कराती है और भविष्य को और भी सुन्दर बनाने के लिये प्रेरित करती है । सम्भवतः यही प्रेरणा हमारी आध्यात्मिक प्रगति को उत्प्रेरित करती है । प्रस्तुत लेखन केवल धर्मप्रधान क्षेत्रों तक सीमित है और उसका भौगोलिक सीमांकन भी बुन्देलखण्ड तक रखा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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