Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ दार्शनिक गणितज्ञ आचार्य यतिवृषभ को कुछ गणितीय निरूपणायें अनुपम जैन सहायक प्राध्यापक, गणित, शासकीय महाविद्यालय, सारंगपुर (राजगढ़) जैन साहित्य के अन्तर्गत गणितीय सामग्री से युक्त करणानुयोग समूह के ग्रंथों के रचनाकारों में आ० यतिवृषभ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। तिलोयपण्णत्ती आपकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है किन्तु इस कृति का गणितीय अध्ययन पाश्चात्य गणित इतिहासज्ञों के सम्मुख समीचीन रूप में प्रस्तुत न हो पाने के कारण आपको अद्यावधि विश्व गणित इतिहास की पुस्तकों में समुपयुक्त स्थान नहीं प्राप्त हो सका है। आ० यतिवृषभ के जीवन के बारे में हमारा ज्ञान अत्यल्प है। आ० वीरसेन एव आ० जिनसेन प्रणीत जयधवला टीका तथा आ० इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार में उपलब्ध सामग्री के आधार पर आ० यतिवृषभ, कषाय प्राभूत के कर्ता आ० गणधर के शिष्य आ० आर्यमंख एवं आ० नागहस्ति के शिष्य थे। संभवत: ते आ आ० नागहस्ति के शिष्य थे। संभवत: वे आ० नागहस्ति के अन्तेवासी थे। आ० आर्यमंख अप्रवाहमान एवं आ० नागहस्ति प्रवाह्यमान श्रतज्ञान के धारक थे। उल्लेखानुसार उपरोक्त दोनों आचार्यों को कषायपाहुड की रचना के मूल स्रोत महाकम्मपडिपाहुड एवं पंचम पूर्वगत पेज्जदोस पाहुड का भी ज्ञान था। आ० यतिवृषभ उपरोक्त दोनों आचार्यों के शिष्य थे, अतः इस बात की पर्याप्त संभावना है कि आपको भी इनका ज्ञान हो। शास्त्री ने एतदविषयक उपलब्ध समस्त अन्तर्बाह्य साक्ष्यों का विश्लेषण कर यह स्थिर किया है कि यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवाद पूर्व तथा द्वितीय पूर्व के पंचम वस्तु के चतुर्थ प्राभूत कर्मप्रकृति के भी ज्ञाता थे। उनका समय 176 ई० के आसपास है। तिलोयपण्णत्ती के वर्तमान संस्करण में उपलब्ध पांचवीं शताब्दी तक के राजवंशों की नामावली किसी परवर्ती आचार्य द्वारा तिलोयपण्णत्ती के मूल संस्करण के पुनर्सम्पादन के समय क्षेपक रूप मे जोड़ दी गयी है। इन्हीं क्षेपक अंशों के आधार पर कई विद्वान आ० यतिवृषभ को आर्यभट्ट-I के समकालीन अथवा समीपवर्ती, 473-609 ई० के मध्य का स्वीकार करते हैं। आपका परम्परा के आधार पर त्रिकालवर्ती विश्व-रचना को व्यक्त करने वाला 9 अध्यायों में विभक्त ग्रंथ तिलोयपण्णत्ती मूलत: गणितीय ग्रंथ नहीं है, तथापि सूत्रबद्ध प्ररूपणाओं में फलों के वर्णन तथा यत्र-तत्र विवेचन में य विधियों का उपयोग गणित इतिहासज्ञों हेतु बहुमूल्य है। लक्ष्मोचन्द्र जैन के अनुसार, कर्मसिद्धान्त एवं अध्यात्म-सिद्धांत विषयक ग्रन्थों में प्रवेश करने हेतु इस ग्रंथ का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। कर्म परणाणओं द्वारा आत्मा के परिणामों का दिग्दर्शन जिस गणित द्वारा प्रबोधित किया जाता है, उस गणित की रूपरेखा का विशेष दूरी तक इस ग्रंथ में परिचय कराया गया है। इस प्रकार यह ग्रंथ अनेक ग्रंथों को भलीभांति समझने हेतु सुडढ़ आधार बनता है। तिलोयपण्णत्ती के गणितीय वैशिष्ट्यों को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत संयोजित किया जा सकता है : मापन पद्धति : खगोलीय ग्रंथ होने के कारण क्षेत्र की माप की सूक्ष्मतम इकाई की आवश्यकता के साथ ही लोक की माप बताने हेतु विशाल संख्याओं एवं इकाईयों की आवश्यकता पड़ी। विविध मापों के परस्पर सम्बद्ध होने तथा विविध प्रकार की जीवराशियों की आयु आदि स्पष्ट करने हेतु काल की इकाईयों को भी परिभाषित करना पड़ा है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610