Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैनाचार्य नागार्जुन प्रो० एम० एम० जोशी, भौतिकी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उ० प्र०
अलबरूनी ने अपने ग्रन्थ "भारतवर्णन" में रसविद्या के आचार्य नागार्जन का उल्लेख करते हए लिखा है कि वे सौराष्ट्र में सोमनाथ के निकट दैहक में रहते थे। वे रसविद्या में बहुत निपुण थे। उन्होंने इस विषय पर एक ग्रन्थ भी लिखा, जो अलबरूनी के कथनानुसार दुर्लभ हो गया था, परन्तु उसने यह भी लिखा है कि नागार्जुन उससे कोई सौ साल ही पहिले हए थे। इस उल्लेख से सौराष्ट्र वाले नागार्जन का काल दसवीं शताब्दि के आस-पास माना जायगा। यदि यह स्थापना सत्य हो तो प्रश्न उठता है कि यह उल्लेख बौद्ध दार्शनिक नागार्जन, जिनका काल ईसा पूर्व पहिली शती निश्चित किया जा चुका है, के बारे में अथवा सिद्ध नागार्जुन, जो सातवीं शताब्दी में हुए, के बारे में तो हो नहीं सकता, अतः क्या यह किसी तीसरे नागार्जुन से सम्बन्धित है ? कुछ विद्वानों का अभिमत है कि अलबेरूनी का तात्पर्य बौद्ध नागार्जुन से नहीं हो सकता, क्योंकि वे तो उससे कम से कम हजार-बारह सौ वर्ष पूर्व हुए थे । हाँ, सिद्ध नागार्जुन के बारे में वह अवश्य लिख सकता था, क्योंकि वे अलबेरूनी के आने से तीन-चार सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे, परन्तु इस स्थापना को मानने में सबसे बड़ी अड़चन यह है कि सातवीं शती वाले सिद्ध नागार्जुन नालन्दा से सम्बन्धित थे और उनका उल्लेख चौरासो सिद्धों में मिलता है। पर अलवेरूनी ने तो नागार्जुन को सौराष्ट्र का निवासी लिखा है। अतः यह प्रश्न उठना उचित है कि क्या कोई तीसरा नागार्जुन भी हुआ था ? कुछ विद्वानों की राय में अलबेरूनी ने प्राप्त सूचनाओं की प्रामाणिकता पर काफी ऊहापोह के बाद ही उनका समावेश अपनी पुस्तक में किया है, अतः सौराष्ट्र क्षेत्र में किसी तीसरे नागार्जुन के अस्तित्व को ढूंढने का प्रयत्न स्वाभाविक ही कहा जायगा ।
हाल ही में, प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक परम्परा के अध्ययन के सिलसिले में कुछ जैन ग्रन्थों का अवलोकन करने का अवसर मिला तथा उदयपुर के डा. राजेन्द्रप्रकाश भटनागर की जैन आयुर्वेद से सम्बन्धित पुस्तक भी पढ़ने का सुयोग मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में भी एक नागार्जुन हुए हैं और उन्हें भी सिद्ध नागार्जुन ही कहा जाता था। मेरुतुङ्गाचार्य रचित प्रबन्ध चिन्तामणि के “नागार्जुनोत्पत्तिस्तम्भनक तीर्थावतार प्रबन्ध" में नागार्जुन के जन्म एवं सिद्ध पुरुष बनने का वर्णन किया गया है। उसके अनुसार अनेक प्रकार की औषधियों के प्रभाव से नागार्जुन सिद्ध पुरुष बने तथा पादलिप्ताचार्य के शिष्य बनकर कोटिवेधी रस के निर्माण की विधि भी जान गये। जैन ग्रन्थों के अनुसार नागार्जुन "ढंक-गिरि", जो सौराष्ट्र प्रान्त में था, के निवासी थे, किन्तु उन्हें सातवाहन नरेश का आश्रय मिला था, जिसे रसवेध द्वारा उन्होंने दीर्घायु प्राप्त कराई थी । 'लॅक-गिरि" गुफाएँ प्राचीन इतिहासविदों के शोध के परिणामस्वरूप तीसरी शताब्दि ईस्वी की समझी जाती है । अतः ईसा की दूसरी या तीसरी शती में नागार्जुन सौराष्ट्र में रसायनशास्त्री के रूप में विख्यात थे। जैन साहित्य में ढंक गिरि को शत्रुजय पर्वत का भाग माना जाता है, यह सौराष्ट्र में बल्लभीपुर के निकट है । 'नागार्जुनी-वाचना' या 'बल्लभी वाचना' के नाम से जैन आगमों के पाठों का उल्लेख तो यत्र-तत्र मिलता है, पर पाठ अनुपलब्ध हैं । अतः बल्लभीपुर में नागार्जुन की उपस्थिति ईसा की तीसरी शती के आस-पास होने के संकेत तो स्पष्ट हैं ।
डा. भटनागर के मतानुसार यही वह तीसरे नागार्जुन है, जो बौद्ध नागार्जुन एवं नालन्दा के सिद्ध नागार्जुन से भिन्न हैं तथा इन्हों का उल्लेख अलबेरूनी ने किया है, किन्तु इनका समय बताने में उसने भूल की है। उनकी दृष्टि से
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