Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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णमोकार मन्त्र और मनोविज्ञान १९३
तक लगातार इस महामन्त्र का जाप करना चाहिए। जाप करते समय निश्चिन्त रहना एवं निराकुल होना परम आवश्यक है। ४. आसनशुद्धि-काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई या शीतलपट्टी पर पूर्वदिशा या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पद्मासन, खड्गासन या अर्धपद्मासन होकर क्षेत्र तथा काल का प्रमाण करके मौनपूर्वक इस मन्त्र का जाप करना चाहिए । ५. विनयशुद्धि-जिस आसन पर बैठकर जाप करना हो, उस आसन को सावधानीपूर्वक ईयापथ शुद्धि के साथ साफ करना चाहिए, तथा जाप करने के लिए नम्रतापूर्वक भीतर का अनुराग भी रहना आवश्यक है। जब तक जाप करने के लिए भीतर का उत्साह नहीं होगा, तब तक सच्चे मन से जाप नहीं किया जा सकता। ६. मनःशुद्धिविचारों की गन्दगी का त्याग कर मन को एकाग्र करना, चंचल मन इधर-उधर न भटकने पाये इसकी चेष्टा करना, मन को पूर्णतया पवित्र बनाने का प्रयास करना ही इस शुद्धि में अभिप्रेत है । ७. वचन शुद्धि-धीरे धीरे साम्यभाव पूर्वक इस मन्त्र का शुद्ध जाप करना अर्थात् उच्चारण करने में अशुद्धि न होने पाये तथा उच्चारण मन-मन में ही होना चाहिए । ८. कायशुद्धि-शौचादि शंकाओं से निवृत्त होकर यत्नाचार पूर्वक शरीर शुद्ध करके हलन-चलन किया से रहित हो जाप करना चाहिए । जाप के समय शारीरिक शुद्धि का ध्यान रखना चाहिए ।
इस महामन्त्र का जाप यदि खड़े होकर करना हो, तो तीन-तीन श्वासोच्छावास में एक बार पढ़ना चाहिए । एक सौ आठ बार के जाप में कुल ३२४ श्वासोच्छ्वास' साँस लेना चाहिए। इसके जाप करने की कमल जाप, हस्तांगुली जाप और माला जाप-तीन विधियां हैं। मनोविज्ञान और णमोकार मन्त्र
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह विचारणीय प्रश्न है कि णमोकार मन्त्र का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है ? आत्मिक शक्ति का विकास किस प्रकार होता है, जिससे इस मन्त्र को समस्त कार्यों में सिद्धि देने वाला कहा गया है। मनोविज्ञान मानता है कि मानव की दृश्य क्रियाएँ उनके चेतन मन में और अदृश्य क्रियाएँ अचेतन मन में होती हैं। मन की इन दोनों क्रियाओं को मनोवृत्ति कहा जाता है। साधारणतः मनोवृत्ति शब्द चेतन मन की क्रिया के बोध के लिये प्रयक्त होता है। प्रत्येक मनोवृत्ति के तीन पहलू हैं-ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक । ये तीनों पहलू एक
नहीं किये जा सकते हैं। मनुष्य को जो कुछ ज्ञात होता है, उसके साथ-साथ वेदना और क्रियात्मक भाव को भी अनुभूति होती है। ज्ञानात्मक मनोवृत्ति के संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण, कल्पना और विचार-ये पांच भेद हैं। संवेदनात्मक के संवेग, उमंग, स्थायीभाव और भावनाग्रन्थि-ये चार भेद एवं क्रियात्मक मनोवृत्ति के सहज क्रिया, मूलवृत्ति, आदत, इच्छित क्रिया और चरित्र-ये पांच भेद किये गये हैं। णमोकार मन्त्र के स्मरण से ज्ञानात्मक मनोवृत्ति उत्तेजित होती है, जिससे उसके अभिन्नरूप में सम्बद्ध रहने वाली उमंग वेदनात्मक अनुभूति और चरित्र नामक क्रियात्मक अनुभूति को उत्तेजना मिलती है। अभिप्राय यह है कि मानव मस्तिष्क में ज्ञानवाही और क्रियावाही-दो प्रकार की नाड़ियां होती है। इन दोनों नाड़ियों का आपस में सम्बन्ध होता है, परन्तु इन दोनों के केन्द्र पृथक् हैं । ज्ञानवाही नाड़ियाँ
और मस्तिष्क के ज्ञान केन्द्र मानव के ज्ञान विकास में एवं क्रियावाही नाड़ियाँ और मानव मस्तिष्क के क्रियाकेन्द्र उसके चरित्र के विकास की वृद्धि के लिये कार्य करते हैं। क्रियाकेन्द्र और ज्ञानकेन्द्र का घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण णमोकार मन्त्र की आराधना, स्मरण और चिन्तन से ज्ञानकेन्द्र और क्रियाकेन्द्रों का समन्वय होने से मानव मन सुदृढ़ होता है और आत्मिक विकास की प्रेरणा मिलती है।
मनुष्य का चरित्र उसके स्थायी भावों का समुच्चय मात्र है। जिस मनुष्य के स्थायी भाव जिस प्रकार के होते हैं, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का होता है। मनुष्य का परिमाजित और आदर्श स्थायी भाव ही हृदय की अन्य प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करता है। जिस मनुष्य के स्थायीभाव सुनियन्त्रित नहीं अथरा जिसके मन उच्चादर्शों के प्रति श्रद्धास्पद स्थायीभाव नहीं है, उसका व्यक्तित्व सुगठित तथा चरित्र सुन्दर नहीं हो सकता है। दृढ़ और सुन्दर चरित्र
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