Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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ज्ञान प्राप्ति की आगमिक एवं आधुनिक विधियों का तुलनात्मक समीक्षण २२५
सर्वज्ञता के सिद्धान्त इसी कोटि के हैं। आचारांग में महावीर को सर्वज्ञ कहा गया है पर बुद्ध ने इसको मान्यता नहीं दी। वस्तुतः हम सर्वज्ञता को ज्ञान के उच्चतम सामर्थ्य का बहिर्वेशन मान सकते है। यह संभव है या नहीं, यह पृथक प्रश्न है। समंतभद्र, अकलंक आदि उत्तरवर्ती आचार्यों ने इसकी संभावना के पक्ष में अनेक तर्क दिये है । फिर भी, यदि इसे अतीन्द्रिय ज्ञानी माना जाता है और उसे सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिग्रहों के गति एवं ग्रहण की गणनाओं के आधार पर सिद्ध किया जाता है, तो आधुनिक दृष्टि से यह निष्कर्ष विरोध का ही समर्थन करेगा। इन विषयों पर गणित एवं ज्योतिष शास्त्रियों ने अध्ययन किये हैं। साथ ही, जैनों के आगम-लोप की मान्यता तथा उसके कारणों की समीक्षा एवं उनमें विद्यमान अनेक भौतिक तथ्यों एवं गणनाओं की परिवर्तनीयता की मान्यता आगम-प्रणेताओं की सर्वज्ञता के प्रश्न को पुनर्विचार के लिये प्रेरिण करती है। आधुनिक बुद्धिवादी को यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि सर्वज्ञ पुरुषों का ज्ञान अत्यंत उच्चकोटि का होगा। समंतभद्र तथा अन्य आचार्यों ने आगमिक या अन्य मान्यताओं को परीक्षित कर ही स्वीकृत करने का प्रशस्त पथनिर्देश दिया है । यह प्रवृत्ति ही ज्ञान के वृक्ष के विकास को प्रशस्त करती है । मान प्राप्ति के परोक्ष रूप : परोक्ष मति और श्रुतज्ञान .
जैनों के अनुसार, मतिज्ञान प्रत्यक्ष या इंद्रिय जन्य (लौकिक) भी होता है और परोक्ष भी होता है । यह परोक्ष ज्ञान भी प्रत्यक्ष के समान ही प्रमाण माना जा सकता है। स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तक) और अभिनिबोध (अनुमान)-ये चार मतिज्ञान के परोक्षरूप है । ये सभी इंद्रियज्ञान के समानार्थी हैं। इन्हें परोक्ष इसलिये माना जाता है कि इनमें इंद्रियों के अतिरिक्त स्मरण, मन और बुद्धि व्यापार भी कारण होता है । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिये कि भारतीय दार्शनिकों में से केवल जैन ही ऐसे है जिन्होंने स्मृति को प्रमाण माना है। उन्होंने इसका प्रमाणता के विरोध में दिये गये तर्कों की उपयुक्त परीक्षा की है। जैनों ने इन विधियों को मतिज्ञान के रूप में परिगणित कर अन्य दर्शनों में वणित प्रायः सभी प्रमाणों को समाहित कर लिया है। ये सभी विधियां सहज अनुभव गम्य हैं, वैज्ञानिक भी इन्हें मानकर चलते हैं।
मतिज्ञान के इन रूपों के अतिरिक्त आगम या श्रत ग्रन्थ भी ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में माने गये हैं। वस्तुतः श्रुतज्ञान धारणात्मक चरण का विस्तार हो है और सामयिक ज्ञानप्राप्ति का अंतिम चरण है। इसकी परिभाषा परंपरा एवं व्युत्पत्ति-दोनों आधारों से की गई है। परंपरावादो दृष्टिकोण से श्रुतज्ञान इंद्रियज्ञान (मति) पूर्वक होता है और इसमें बुद्धि और वाणी का भी उपयोग होता है। यह सेन्द्रिय या अतीद्रिय ज्ञान के समान प्रत्यक्ष और विशद नहीं होता। यह अक्षर और अनक्षर रूप से दो प्रकार का होता है । अक्षरश्रुत लिखित या वाचनिक होता है। यह स्वयं एवं अन्यों को भी ज्ञान कराता है। यह पूर्वाचायों के ज्ञान के संप्रसारण का काम करता है। इसे द्रव्यश्रुत भी कहते हैं। अनक्षर श्रुत को भावश्रुत कहते हैं । विभिन्न दर्शनों में इनके विभिन्न नाम मिलते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में श्रुत की अधिक लोकप्रिय और व्यूत्पत्तिपरक परिभाषा दी गई है। उसके अनुसार विश्वसनीय शास्त्रज्ञों के द्वारा लिखित या मौखिक शब्द योजना श्रत है। पूज्यपाद ने तीन प्रकार के शास्त्रज्ञ माने है : सर्वज्ञ तीर्थकर, उनके प्रत्यक्ष शिष्य गणधर और अन्य आचार्य। मेहता ने शास्त्रज्ञों को लौकिक एवं अलौकिक कोटियों में विभाजित किया है१ । यहाँ लौकिक शास्त्रज्ञों की कोटि की सामान्यता जन सामान्य से पर्याप्त उच्चतर होती है और गणधर तथा विभिन्न आचार्य इस कोटि में आते है। शास्त्रज्ञों के लिए 'आप्त' कहा जाता है। इनके द्वारा निर्मित शास्त्र ही प्रमाण माने जाते हैं। ये हो श्रुतज्ञान के साधन है। ये अनुभव-ज्ञान के भण्डार हैं।
शास्त्रों में बताया गया है कि द्रव्य श्रुत सादि और सान्त है पर भाव श्रुत अनादि और अनन्त हैं। इसके दो प्रमुख भेद है-अंग प्रविष्ट और अंगवाह्य । आचारांग आदि बारह अंग प्रथम कोटि के हैं और इनके बारहवें अंग में 'पूर्व' भी समाहित होते हैं । यह तो ज्ञात नहीं कि अंग ग्रन्थ पूर्व ग्रन्थों के पूर्ववर्ती है पर इन्हें अंगों में समाहित कर लिया
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