Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
२३० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
और उत्तरार्ध में उन ज्योतिषकों के नाम है-७९०, १०,८०, ४, ४, ३, ३, ३, ३ योजन ऊँचे है, निम्न विमान तारा-रवि-शशि-ऋषि-बुध-भागंव-मंगल-शनि । इसमें यह सम्भावना भी की जा सकती है कि ग्रन्थों का लेखन हाथ से लेखकों द्वारा किया जाता था। यदि कदाचित् लिपि-लेखक लिखने में रवि का नाम भूल से पहले और शशि का नाम उसके पीछे लिख जाये, तो दोनों की ऊंचाई का भी अन्तर पड़ सकता है । इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रायः लिपिलेखक भूल भो कर जाता है । वे सब बहुत ज्यादा आगमज्ञ ही होते हैं, ऐसा नहीं है । इसके लिए यह गाथा पूज्यपाद स्वामी के पूर्व कहाँ अन्यत्र ग्रन्थों में पाई जाती है अथवा उनके पूर्व के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में क्या विवेचन है, इस ओर ध्यान आकर्षित होना आवश्यक है । अकलंक देव ने यतिवृषभ और नेमिचन्द्राचार्य ने अपने ग्रन्थों में इसी का अनुसरण किया है, पर ये पूज्यपाद के बाद के आचार्य हैं । क्या इससे पूर्व का कोई साहित्य है जिसमें उक्त कथन की पुष्टि ही पाई जाती है, तभी यह सम्भावना गलत होगी कि लेखक को भूल से परिवर्तन सम्भाव्य है । चन्द्रलोक यात्रा ओर उसकी दूरी
चन्द्रलोक की यात्रा मानव कर सकता है, इस पर जैन चिन्तक संशयारूढ़ है, उसकी ऊँचाई जो आगम में है और वर्तमान में मानी गई है वह भी जैनागम से मेल नहीं खाती।
सम्भावना : मनुष्य, मनुष्य लोक में जा सकता है। मानुषोत्तर पर्वत तो उसकी सीमा दिशा-विदिशाओं में सत्रकार ने बांधी है, पर ऊपर ९९९९९ योजन और नीचे चित्रा पृथ्वी प्रभाग क्षेत्र भी मनुष्य लोक ही है । फलतः मध्यलोक में मनुष्य लोक ४५ लाख योजन लम्बा-चौड़ा और एक लाख योजन ऊपर-नीचे मोटा है । अतः चन्द्रलोक को ८०० या ८० योजन जाना आगम पद्धति से विरुद्ध नहीं है। अंजनचोर को आकाशगामी विद्या सेठ के मंत्र से प्राप्त होने तथा उसके व सेठ के द्वारा सुमेरु पर्वत के जिनालयों की वन्दना की कथा प्रथमानयोग में है। विद्याधर और ऋद्धि प्राप्त मनिजन भी समेरु के चैत्यालयों की वन्दना करते हैं। चैत्यालयों की स्थिति वहाँ सौमनस वन में ६३००० योजन तथा पाण्डुक वन की ९९००० योजन है, जब वहाँ मानव जा सकता है, तब ८८० योजन ऊपर जाना आगम सम्भव है । यह बात दूसरी है कि वहाँ लोग गये या नहीं गये । इसी प्रश्न को उठाकर लोग सन्देह उत्पन्न करते हैं।
जहाँ तक ऊंचाई के माप का अन्तर है, उसके लिए यह विचार भी आवश्यक है कि उस समय के कोश का प्रमाण क्या था और आज कोश का प्रमाण क्या है, जिसके आधार पर योजन का माप है। जिन हाथों के प्रमाण से गज, और गजों से माइल और कोश इस युग में नापे गये हैं, उनकी ये परिभाषाएं आधुनिक हैं, प्राचीन नहीं । प्राचीन परिभाषाएं क्या थी ? यह शोष होना चाहिए, तब अन्तर दूर होने की स्थिति बनेगी।
एक उदाहरण पर विचार करें । भगवान महावीर की ऊंचाई ७ हाथ थी, वह हाथ किसका है या उसका क्या मापदण्ड है ? छठे काल में एक हाथ का शरीर होगा। शरीर की आकृति २१ हजार वर्ष में ६ हाथ घटेगी तो उस अनुपात से बीर निर्वाण २५०० में होने वाले मनुष्य सवा छः हाथ के हैं । अब हाथ के प्रमाण की परिभाषा ढुंढ़ना आवश्यक हो गया। यदि उसका निर्णय हो जाय, तो माप के अन्तर की शोध हो सकती है। यह भी विचारणीय है कि जैन आगम के अनुसार चन्द्रमा की ऊंचाई ८८० योजन है। वह ऊँचाई कहाँ से नापी गई है, सुमेरु के पास विदेह क्षेत्र से या आर्यखण्ड की अयोध्या से ? वर्तमान के वैज्ञानिक किस कोण से माप करते हैं, यह भी देखना होगा। इस बात को एक उदाहरण से समझिये । सूर्य पृथ्वी से ८०० योजन है। कर्क संक्रान्ति के समय चक्रवर्ती नरेश अयोध्या में अपने महल के ऊपर से उस दिन सूर्य विमान में स्थित जिन बिम्ब का दर्शन करता है। सूर्योदय के समय वह सूर्य निषध पर्वत के ऊपर होता है, उस समय सूर्य की दूरी का प्रमाण ४७,२६३ योजन का आता है। इससे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि मिन्नभिन्न स्थानों से भिन्न-भिन्न चार क्षेत्रों में स्थित सूर्य आदि ग्रहों की दूरी का प्रमाण भिन्न-भिन्न ही होगा। इसी परिप्रेक्ष्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org