Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैन शास्त्रों में वैज्ञानिक संकेत २३१
में चन्द्रमा की दूरी का अन्तर ढूंढना आवश्यक होगा। तभी सही रूप से चन्द्रमा को वैज्ञानिक दुरो और आगमिक दूरी के अन्तर या रहस्य का भेद पाया जा सकेगा । उभय विषयों के सक्षम विद्वान् इस पर विचार करें और प्रकाश डालें। ४. शब्द की पौद्गलिकता और गति
'शब्द' को जैनागम में पुद्गल पर्याय माना गया है । तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ के सूत्र २४ में यह प्रतिपादित है । शब्द में पुद्गल की पर्याय के कारण रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का होना अनिवार्य है । शब्द के इन गुणों पर भी विज्ञान के आधार पर विचार अपेक्षित है। शब्दों की व्यंजना वायु के आधार पर होती है, अतः दोनों में परस्पर सम्बन्ध है और दोनों पौद्गलिक है । वायु भी वायुकायिक जीवों का शरीर है । ये दोनों दृष्टिगाचर न होने पर भो श्रवण ओर स्पर्शन ग्राह्य है तथा इनके अन्य गुणों की अभिव्यक्ति भी विश्लेषण चाहती है। 'प्रकाश' भो सूत्र के अनुसार पुद्गल को पर्याय है और अन्धकार तथा छाया भी। इसी प्रकार के आतप और उद्योत भी है; जो पकड़े नहीं जाते पर चक्षु ग्राह्य हैं। इन सबका निरूपण भिन्न-भिन्न मतों में भिन्न-भिन्न प्रकार से हैं, पर इनको एकरूपता, पौदगलिक होने के कारण, निश्चित है । विज्ञान के प्रकाश में इस एकरूपता को स्पष्ट किया जाना चाहिए ।
पुद्गल गतिमान द्रव्य है । विज्ञान ने भी शब्द को तथा प्रकाश को गतिशील माना है। यह प्रत्यक्ष भो दिखाई देता है । प्रकाश की गति शब्द से अधिक तीव्र मानी जाती है, पर जैन आगम में शम को गति अधिक बतायो गयो है। परमाणु यदि एक समय में लोकान्त तक गमन करता है, तो शब्दरूप पुद्गल स्कन्धात्मक परिणति के बाद भी दो समय में लोकान्त पर्यन्य गमन करता है, ऐसा धवला की तेरहवीं पुस्तक में स्पष्ट उल्लेख है। विज्ञान को कसौटी पर इस तथ्य का भी परीक्षण करना योग्य है। ५. काल द्रव्य असंख्याव है
सभी द्रव्यों के परिणमन में कालद्रव्य को पर्यायं निमित्तभूत हैं । यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । वह इस कार्य में अधर्म द्रव्य की तरह उदासीन निमित्त है, प्रेरक नहीं । कारण वह स्वयं क्रियावान द्रव्य नहीं है । आर्यखण्ड में छह काल रूप परिवर्तन होता है। म्लेच्छखण्ड में यह परिवर्तन नहीं होता। विजया पर्वत पर होने वाली विद्याधर श्रेणियों में भी यह परिवर्तन नहीं होता । स्वर्ग-नरक तथा भोग भूमियों में (जो स्थाई है) छः काल का परिवर्तन नहीं होता। क्या काल के परिणमन को विषमता भिन्न-भिन्न कालद्रव्य के भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न परिणमनों की सूचक है। धर्म, अधर्म, आकाश एक-एक द्रव्य है, तब इनके परिणमन को एक हो धारा है पर कालद्रव्य असंख्य है, अतः इनका परिणमन भिन्न-भिन्न हो सकता है। क्या इन छह काल रूप परिवर्तन में निमित्त शक्ति वाला कालद्रव्य आर्यखण्डों में ही है या इस परिणमन के कुछ अन्य कारण है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रूप काल में उत्सपिणो अवसर्पिणी परिणमन पाये जाते हैं । चिन्तन का यह भी एक विषय हो सकता है। ६. अचाक्षुष पदार्थ चाक्षुष कैसे बनता है ?
__ पांचवें अध्याय का २८वां सूत्र है-'भेदसंघाताभ्याम् चाक्षुषः', भेद और संघात से पदार्थ चाक्षुष होता है। टीकाकार पूज्यपाद आचार्य ने लिखा है 'अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदायरूप कुछ स्कन्ध चाक्षुष है पर कुछ चक्षु का विषय नहीं बनते, वे अचाक्षुष हैं। सूत्र को टोका में अचाक्षुष कैसे 'चाक्षुष' बनता है, इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि कोई अचाक्षुष स्कन्ध सूक्ष्म परिणत है, वह भेद के द्वारा भिन्न हुआ । उसका अंश अन्य चाक्षुष स्कंध में मिल गया, तब वह भी चाक्षुष बन गया । इस तरह भेद और संघात दोनों के योग से ही अचाक्षुष स्कन्ध चाक्षुष बनता है।
सम्भावना : ऊपर का समाधान तो यथार्थ है हो, तथापि सूत्र में द्विवचन होने से अन्य अयं भो प्रतिफलित होता है। अचाक्षुष पदाथं दो प्रकार से चाक्षुस बन सकता है । एक तो ऐसे कि अचाक्षुष सूक्ष्म परिणत दो स्कन्ध मापस
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