Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
४ . ]
जैन शास्त्रों में वैज्ञानिक संकेत २२९
किया जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि यह एक प्रकार का बिजली की तरह 'पावर' है, शक्त्यात्मक है जो स्वयं न तो योग बल्कि इन सब शरीरों को शक्ति प्रदाता है । यह (शक्ति) दायक है । धवला, पुस्तक ८ की वाचना के
रूप क्रिया करता है और न उपयोगात्मक क्रिया का साधन है औदारिक शरीरों को तथा विग्रह गति में कार्मण शरीर को तेज समय सागर में भी कुछ संकेत इसी प्रकार के प्राप्त हुए थे, अतः यह विचारणीय है । २. भूमि के वृद्धि हास सम्बन्धी सूत्रों पर विचार
एक प्रश्न जब हमारे सामने आता है कि आयं खण्ड की इस भूमि पर भोग भूमि में तीन कोस के, दो कोस के, और एक कोस के तथा कर्मभूमि के प्रारम्भ में ५०० धनुष के मनुष्य होते थे, तो उस समय क्या भूमि का विस्तार ज्यादा होता था ? यदि नहीं, तो कैसे इसी भूमि पर उनका आवास बन जाता था । इस प्रश्न के आधार पर जब विचार आता हैं, तब तत्वार्थ सूत्र के अध्याय ३ के सूत्र २७-२८ पर भी ध्यान आकर्षित होता है । वे सूत्र हैं :
'भरतैरावतयोर्वृद्धि हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिर्णीभ्याम् ' तथा 'ताभ्यामपराभूमयोअवस्थिताः' ।
अर्थात् भरत और ऐरावत की भूमियों में वृद्धि व हास होता है - उत्सर्पिणो और अवसर्पिणो काल में, और इनके अलावा अन्य भूमियाँ वृद्धि ह्रास से रहित अवस्थित ही रहती है । यद्यषि पूज्यपाद आचार्य ने इस प्रश्न को उठाया हैं कि 'क्यों ?' और समाधान दिया है 'भरतैरावतयोः । तथापि आगे चलकर उन्होंने लिखा है कि 'न तयोः क्षेत्रयोः असम्भवात् ।' इस प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है कि सूत्र से भी क्षेत्र की ही वृद्धि - ह्रास का अर्थ निकलता है । पर चूंकि उसकी सम्भावना नहीं है, अतः भूमि स्थित मनुष्यादिकों के आयु अवगाहना आदि का हो वृद्धि ह्रास होता है, यह सप्तमो विभक्ति के आधार पर व्याख्या की ।
संभावना : यह सम्भावना की जाती है कि सूत्र का अर्थ भूमि को वृद्धि-हास का भी सम्भाव्य है । प्रथम सूत्र में भरतरावत में षष्ठी और सप्तमी से प्रचलित अर्थ किया जा सका, पर दूसरा सूत्र स्पष्टतया भूमियों की अवस्थिति वहाँ 'भूमयः' प्रथमान्त शब्द हैं, षष्ठी, सप्तमो नहीं है, जिससे पूर्व सूत्र पर भी प्रकाश पड़ता है कि यदि भरत ऐरावत के सिवाय अन्य भूमियाँ अवस्थित हैं, तो भरत ऐरावत को भूमियों में अनवस्थितता है, अतः उनमें वृद्धि ह्रास होते हैं ।
बता रहा
आचार्य
पूज्यपाद ने उसकी सम्भावना तो नहीं देखी क्योंकि आर्यखण्ड-गंगा-सिन्धु दोनों महानदियों से पूर्व पश्चिम में और दक्षिण में विजयार्ध और लवण समुद्र से सीमावद्ध हैं । अतः यह दिशा विदिशाओं में बढ़ नहीं सकता । इसलिए असम्भवात् शब्द से उसे व्यक्त किया है । तथापि एक और प्रसंग है जो यह बतलाता है कि उत्सर्पिणी से अवसर्पिणी को और कालगति बढ़ने पर चित्रा पृथ्वी पर एक योजन भूमि ऊपर को बढ़तो है और प्रलय काल मे वह वृद्धि समाप्त होकर चित्रा पृथ्वी निकल आती हैं, ऊपर बढ़ने पर पर्वतों को तरह ऊपर-ऊपर भूमि घटती जाती है और नोचे चौड़ा रहती है। क्या इसी आधार पर वृद्धि ह्रास के सम्भाव्य संकेत तो नहीं है ? यदि यह माना जाय तो बड़ी अवगाहना के समय उसका विस्तार माना जा सकता है। यह भी यह विचारणीय संकेत है ।
३. ज्योतिषचक्र की ऊंचाई तथा चन्द्रयात्रा पर विचार
वर्तमान मान्यता है कि सूर्य ऊपर तथा चन्द्र नीचे है । किन्तु जैनागम में प्रचलित मान्यता है कि सूर्य पृथ्वी तल से आठ सौ योजन और चन्द्रमा ८८० योजत है । यह प्रत्यक्ष अन्तर भी हमारी मान्यता को चुनौती हो जाती है । इस पर विचार किया जाए ।
सम्भावना : सवार्थसिद्धि में तत्वार्थसूत्र अध्याय ४ सूत्र १२ की टीका में आचार्य ने इन ऊंचाइयों का वर्णन किया है । किन्तु यह वर्णन जिस आधार पर किया है, वह है एक प्राचीन गाथा, जिसमें क्रमानुसार पूर्वार्ध में संख्या है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org