Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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२१४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
विशेष में मिश्रावस्था के कारण असंख्य आगन्तुक मल रहते हैं जिनका शोधन गुरुदर्शित मार्ग से होता है और वह संस्कृत शब्द शक्ति रूप से प्रकाशित होकर कामधेनु बन जाता है। उसकी यह कामधेनु रूपता समस्त कामनाओं की पूर्ति करती है । शब्द-ममं के ज्ञाता वसिष्ठादि महर्षि इसी 'शब्दयोग' की साधना से अलौकिक शक्ति सम्पन्न थे । इसकी प्रक्रिया में मन्त्रवर्णं अथवा बीज मन्त्रों के निरन्तर आवर्तन से वैखरी शब्द के सभी मल घुल जाते हैं, तब इडा पिंगला का स्तंभन होता है और सुषुम्ना का मार्ग कुछ उन्मुक्त हो जाता है । तत्पश्चात् प्राणशक्ति की सहायता से शोषित शब्द शक्ति ब्रह्मपथ का आश्रय लेकर क्रमशः ऊर्ध्वगामिनी होती हैं । यही शब्द की सूक्ष्मा और मध्यमा अवस्था है । इसी अवस्था में अनाहतनाद होता है । स्थूल शब्द इसके विराट् प्रवाह में डूबकर उससे पूर्ण होकर चैतन्य को प्राप्त करता है । यही मन्त्र- चैतन्य का उन्मेष है । इस अवस्था में साधक जीवमात्र की चित्त वृत्ति को अपरोक्षभाव से शब्द रूप में जान लेता है । देश - काल का व्यवधान इसे रोकने में समर्थ नहीं होता । आगम शास्त्रों में इसी को 'पश्यन्ती वाक्' कहा है । ये सभी क्रियाएँ मन्त्र योग की आन्तरिक क्रियाओं में आती हैं ।
बाह्य-क्रियाओं में भी मन्त्र के सहयोग से हृत् - अवस्थित इष्टदेव की प्रतिमा में नासारन्ध्र से प्रश्वासपूर्वक अञ्जलिगत पुष्पों के समर्पण के साथ चैतन्य मूर्ति का आवाहन होता है । तदनन्तर विभिन्न न्यासों के द्वारा देवरूप बने हुए शरीर से देवाचन किया जाता है। पूजा के उपकरणों में पात्रासादन की विधि का विशेष महत्त्व है। ध्यान पूर्वक आवाहित देवता का संस्थापन, सन्निधापन, सन्निरोधन, सम्मुखीकरण तथा अवगुण्ठनसहित वन्दन, धेतु, योनि, हृदयादि षडङ्ग और आयुध मुद्राओं का दर्शन तो योग-मूलक ही हैं । इष्ट देवता की पूजा सर्वप्रथम चतुःपष्ट उपचारों की कल्पना एवं मङ्गल - नीराजन पूर्वक आवरण देवता अथवा परिवार देवताओं की क्रमिक अर्चना से सम्पन्न होती है। इन पूजा विधानों में प्रत्येक के स्थान, स्वरूप, गुण, कर्मादि का ध्यान रखते हुए उनके बीज मन्त्रों और मन्त्रों के साथ पूजा होने से मन की तल्लीनता इतनी समुन्नत हो जाती है कि यह किसी भी योग-साधना से कम नहीं कही जा सकती ।
मन्त्रयोग
शाक्त सम्प्रदाय में मन्त्र एवं यन्त्र का अत्यन्त महत्व है । प्रत्येक मन्त्र के बीजाक्षरों में उन-उन देवताओं के नाम, रूप, गुण और कर्म का बोध उपासना के क्रमानुसार होता है । बिन्दु, त्रिकोण, पञ्चकोण, वृत्त आदि एक अथवा अनेक आकृतियों में लिखित होने पर वह देवता की आकृति का बोधक 'यन्त्र' कहलाता है । देवता के सम्पूर्ण स्वरूप का उस बिन्दु कोणात्मक आकृति में नियन्त्रण होने से भी उसे यन्त्र कहा जाता है । 'यन्त्रो देवालयः प्रोक्तः ' यह भी प्रसिद्ध
।
में
ही है । यन्त्र और देवता में अभेद ज्ञान ही 'यन्त्रयोग' है इस शास्त्राज्ञा के अनुसार क्रमशः साधना करते हुए यन्त्र की पहले बाह्य आराधना, तदनन्तर देव स्वरूप की शरीर भावना और अन्त में यन्त्र की शरीर में भावना करते हुए ऐक्य प्राप्त कर ब्रह्मभाव में पहुँचना 'यन्त्रयोग' का लक्ष्य है। प्रतीक विद्या की प्राचीन परम्परा में यन्त्र की सृष्टि परमात्मा की सिसृक्षा के द्वारा हुई है । "मैं अकेला हूँ, बहुत बनूँ", इस सर्जन की इच्छा होते ही पूर्ण-बिन्दु से लघु बिन्दुओं का उच्छलन होता है जो इच्छा, ज्ञान और किया के रूप में त्रिबिन्दु रूप होकर एक-दूसरे के प्रति आकर्षण के कारण त्रिकोणाकार में परिणत हो जाते हैं। यह त्रिकोण ही समस्त यन्त्रों की आकृतियों में अन्तर्निहित रहता है । इसके मध्य बिन्दु में इष्टदेव स्वशक्ति- सहित विराजमान रहते हैं ।
ऐसे यन्त्रों की साधना में भी पूर्वोक्त परिवार देवताओं की स्थिति होने से उनकी साङ्गोपाङ्ग अर्चना की जाती है । यह यौगिक पद्धति की ही परिपोषक है । यह यन्त्रयोग मन्त्रयोग का ही एक रूप है जो आलम्बन का साधन बनकर साधक की सहायता करता है । यन्त्र-योग की यह साधना ही सर्वतोभद्र साधना कहलाती है ।
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