Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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२१८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड अभिप्राय को ध्यान में रखकर बताये गये हैं । इनमें चारों प्रकार को निक्षेप विधि एवं प्रमाण-नय-अधिगम विधि समाहित हो जाती है । प्रज्ञापना और जोवाभिगम में २२ शीर्षकों (वक्तव्यताओं) का उल्लेख है।
सारणी १ : अनुयोग द्वार (१) प्रथम प्ररूप (२) द्वितीय प्ररूप
(३) वैज्ञानिक प्ररूप
सत्
नाम तयारी, प्राप्ति विधि
निर्देश साधन (उत्पादक कारण) विधान (वर्गीकरण) अधिकरण स्थिति स्वामित्व
संख्या, अल्पबहुत्व क्षेत्र, स्पर्शन काल, अंतर भाव
उपयोग
भौतिक जगत के मान के विविध रूप और मतिनान
सामान्यतः लौकिक और भौतिक जगत के ज्ञान के लिये प्रत्यक्ष (मति, लौकिक प्रत्यक्ष) और परोक्ष (स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम या श्रुत) ज्ञान काम आते हैं। इसमें श्रुत पराधिगम के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे हम ज्ञात ज्ञान का अभिलेख भी कह सकते हैं जो उसे सुरक्षित रखता है और प्रसारित करता है । यह ज्ञान प्रवाह की गतिशीलता में विशेष योगदान तो नहीं करता पर उसके अभिवर्धन में प्रेरक अवश्य होता है। यह श्रत मति-पूर्वक होता है और यह पूर्व-श्रुत-पूर्वक भी हो सकता है। इस दृष्टि से तो मतिज्ञान महत्वपूर्ण है हो; साथ ही, वह इस दष्टि से और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि इसके बिना स्मृति आदि परोक्ष ज्ञान भी नहीं हो सकते । इन सभी में, किसी न कि मतिज्ञान वीज रूप में होता है । अतः सामान्य जन के लिये ज्ञान का सर्वप्रथम साधन मति ज्ञान ही है ।
मतिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है। फलतः इन्द्रिय ज्ञान का महत्व स्वयं सिद्ध हैं । इसीलिये इनके विपय में शास्त्रों में पर्यास चर्चा आई है। इसके अन्तर्गत इससे होने वाले वस्तु-ज्ञान के विविध प्रकार और ज्ञान प्राप्ति के विविध चरण और उनके सूक्ष्म-स्थूल भेदों का विवरण समाहित है। फलतः मतिज्ञान कैसे होता है और उस ज्ञान प्राप्ति में कितने चरण होते हैं-इन और अन्य तथ्यों का परिज्ञान अत्यन्त रोचक विषय है क्योंकि वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान की प्रक्रिया भी मतिज्ञान का ही एक रूप है । अतः इन दोनों की तुलना और भी मनोरंजक सिद्ध होगी।
. शास्त्रों में मतिज्ञान के ३३६, ३८४ या ४५६ भेद, विभिन्न विवक्षाओं से, बताये गये हैं। इनमें वे चरण भी
त है जो ज्ञान प्राप्ति को प्रक्रिया में संपन्न होते हैं। इन्हें सारणो २ में दिया गया गया है। इन भेदों से मतिज्ञान के सम्बन्ध में प्रायः सभी आवश्यक जानकारी हो जाती है। इन भेदों को दो प्रमख कोटियों में वर्गीकृत किया जा सकता
-(i) उत्पादक साधन और (i) स्वरूप। स्वरूप की दष्टि से मतिज्ञान के ४८ भेद होते हैं और साधन के आधार पर २८८, ३३६ या ४०८ भेद होते हैं। मतिज्ञान के उत्पादक साधनों में पाँच इन्द्रिय और मन हैं। इनसे वस्तु का ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के चार क्रमिक चरणों में बारह रूपों में होता है। इस प्रकार ६४४४१२२८८ भेद तो सामान्य रूप से हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । उपरोक २८८ भेद अर्थावग्रह की दृष्टि से हैं। यह माना गया है कि व्यंजनाग्रह चक्षु और मन को छोड़ चार अन्य प्राप्यकारी इन्द्रियों से ही होता है, अतः इसके ४४ १२ %D४८ भेद पृथक् से हुए। अब मतिज्ञान के कुल भेद २८८+४८%3D ३३६ हो जाते हैं। अब यदि अर्थावग्रह के भो दो भेदों-उपचरित और निरुपचरित-को इस वर्गीकरण में समाहित
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