Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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२०२ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
इच्छा की सूक्ष्म तरंगें सहस्रार और आज्ञाचक्र से पास होकर मूलाधार चक्र से टकराती हैं और ऊपर की ओर लौटती हैं । वे मार्गवर्ती वर्णों एवं अक्षरों को स्पन्दित करती हैं । ये स्पन्दन ( चित्र १ ) ही कण्ठ प्रदेश में टकराकर शब्द रूप में परिणत होकर स्फोटित होते हैं । इस प्रकार शब्द बाहर को भीतर से जोड़ता है और अन्तर को अभिव्यक्ति देता है।
शास्त्रों में मंत्र को प्रयोग साध्य कहा गया है। प्रयोग तो आधुनिक विज्ञान का क्षेत्र है। इसकी प्रयोग साध्यता, अतएव फलवत्ता वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित की जा सकती है। इसीलिये मंत्रविद्या को अब मंत्र विज्ञान, ध्वनि विज्ञान या शब्द विज्ञान भी कहने लगे हैं। शास्त्रीय मंत्र विज्ञान सूक्ष्मतम का विज्ञान है। वह 'परा' शून्य अवस्था से प्रारम्भ होकर पश्यन्ती, मध्यमा ( विचार ) चरणों से पार होकर 'वैखरी' या वचन के रूप में प्रकट होता है । उच्चारित ध्वनि में मन, बुद्धि, चेतना आदि के आयाम जुड़ जाने से वह बोझिल बन जाती है। इसके विपयसि में अन्तर्गामी ध्वनि इन आयामों का परित्याग कर सूक्ष्म नाद एवं शक्ति का रूप धारण करती है। इस सूक्ष्म शक्ति को जागृत करने के लिये मंत्र का गठन ऐसे चमत्कारी ढंग से किया जाता है कि उसकी आवृत्ति का सीधा प्रभाब हमारी सूक्ष्म ग्रन्थियों, षट्चक्रों एवं शक्ति केन्द्रों पर पड़े। इससे प्रसुप्त शक्ति जागती है। मंत्रों के उद्देश्यों के अनुरूप उनको आवृत्तियां विशिष्ट ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाती हैं जिससे वे सिद्धिप्रद होने लगती हैं । शब्द की आवृत्ति जितनी ही भीतर की ओर होगी, उतनी ही वह चैतन्य कोश को दोलित करेगी। यह आवर्तना ही प्राणवत्ता कहलाती है । यह चने हए शब्द एवं ध्वनि समूहों पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से साधक की विचार शक्ति स्विच का काम करती है और मंत्र शक्ति विद्युत तरंगों का काम करती है। मंत्रों के प्रकार
आचार्य विमल सागरजी के अनुसार, मंत्रों की संख्या चौरासी लाख है। इनके अध्ययन के लिये उनका वर्गीकरण आवश्यक है। इन्हें कई आधारों पर वर्गीकृत किया गया है । मूलाचार में मंत्र सिद्धि विधि के आधार पर मंत्रों के दो प्रकार बताये गये हैं : पठित ( जो पाठ-सिद्ध हो ) और साधित ( जो साधना से सिद्ध हो )। चक्रेश्वरी और ज्वाला
लिनी पठित श्रेणी के हैं। गणधर वलय, रिषिमंडल, सिद्धचक्र आदि साधित श्रेणी के हैं। यह वर्गीकरण पर्याप्त स्थल प्रतीत होता है।
प्रकृति के आधार पर मंत्रों को तीन कोटियाँ हैं—आसुरी, राजस और सात्विक । आसुरी मंत्रों के साधकों को सिद्धियां दिव्य रूप में प्रकट नहीं होती। सात्विक मंत्र के साधकों का अनुष्ठान निष्काम होता है और उन्हें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व की सिद्धियाँ अनिवार्यतः प्राप्त होती हैं । राजस मंत्रों के फल मध्यवर्ती होते हैं। हमें सात्विक मंत्रों की साधना करनी चाहिये । __मंत्रों के स्वरूप के अनुसार भी, मंत्र तोन प्रकार के बताये गये हैं : स्रष्टिक्रमी, स्थितिक्रमी और संहारक मंत्र । प्रथम कोटि के मंत्र शान्ति, अभ्युदय, पुष्टि एवं पुरुषार्थ जनक होते हैं। स्थितिक्रमी मंत्र अशुभ परिणामों के नाशक और शम परिणामी होते हैं। संहारक मंत्र संहारी क्रियाओं एवं मनोवृत्ति के जनक होते हैं। इनसे शुम का भी संहार
मंत्र प्रकार
नाम
देवता
मंत्रांत
उद्देश्य
सौर
पुरुष
पुल्लिगी मंत्र २. स्त्रोलिंगी मंत्र ३. नपुंसकलिंगी
सौम्य
स्त्री
हुँ, फट, वषट् स्वाहा नमः
वशीकरण, स्तंमन, उच्चाटन, अर्थप्रद शान्ति, पुष्टि, काम सिद्धि, धर्म, मुक्ति
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