Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैनधर्म में अहिंसा
डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव पटना (बिहार )
अहिंसा जैनधर्म की आधारशिला है। जैन चिन्तकों ने अहिंसा के विषय में जितनी गम्भीर सूक्ष्मेक्षिका से विचारविश्लेषण किया है, उतनी सूक्ष्म दृष्टि से कदाचित् ही किसी अन्य सम्प्रदाय के विचारकों ने चिन्तन किया हो । जैनों की अहिंसा का क्षेत्र बड़ा व्यापक है । उनके अनुसार अहिंसा बाह्य और आन्तरिक दोनों रूपों में सम्भव है । बाह्य रूप से किसी जीव को मन, वचन और शरीर से किसी प्रकार की हानि या पीड़ा नहीं पहुँचाना तथा उसका दिल न दुःखाना अहिंसा है, तो आन्तरिक रूप से राग-द्वेष के परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थित होना अहिंसा है । बाह्य अहिंसा व्यावहारिक अहिंसा है, तो आन्तरिक अहिंसा निश्चयात्मक अहिंसा । इस दृष्टि से व्यावहारिक रूप से जीव को आघात पहुँचाना यदि हिंसा है, तो आघात पहुँचाने का मानसिक निश्चय या संकल्प करना मी हिंसा ही है । वस्तुतः अन्तर्मन में राग-द्वेष के परिणामों से निवृत्तिपूर्वक समता की भावना जबतक नहीं आती, तब तक अहिंसा सम्भव नहीं है । इस प्रकार अतिव्यापक रूप में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण अहिंसा में ही समाहित हैं । कुल मिलाकर अहिंसा ही जैनधर्म की मूलधुरी है और इसीलिए जैन दार्शनिकों ने अहिंसा को परम धर्मं कहा है ।
व्यावहारिक दृष्टि से यदि देखें, तो जल, स्थल, आकाश आदि में सर्वत्र ही क्षुद्रातिक्षुद्र जीवों की अवस्थिति है, इसलिए बाह्य रूप में पूर्णत: अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है; परन्तु अन्तर्मन में समता की भावना रहे और बाह्यरूप में पूर्ण यत्नाचार के पालन में प्रमाद न किया जाय, तो बाह्यजीवों की हिंसा होने पर मी सोद्देश्य हिंसा की मनःस्थिति के अभाव के कारण साधक या श्रावक मनुष्य अहिंसक बना ही रहता है।
इस प्रकार जैनों के “रत्नकरण्ड श्रावकाचार", "कार्तिकेयानुपेक्षा" आदि आचार ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि अहिंसा मुख्यतः दो प्रकार की है : स्थूल अहिंसा और सूक्ष्म अहिंसा । त्रस जीवों अर्थात् अपनी रक्षा के लिए स्वयं चलने-फिरने वाले ( यानी कीट-पतंग और पशु-पक्षी से मनुष्य तक ) दो इन्द्रियों से पाँच इन्द्रियों तक के जलचर, थलचर और खेचर जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिये और अकारण एकेन्द्रिय, अर्थात् बनस्पतिकायिक जीवों की भी हिसा यानी पेड़ों को काटना या उनकी डालियों और पत्तों को तोड़ना आदि कार्य भी नहीं करना चाहिये । यह स्थूल अहिंसाव्रत है । फिर, जो श्रावक मनुष्य जीवों के प्रति दयापूर्ण व्यवहार करता है, सभी जीवों को आत्मवत् मानता है और अपनी निन्दा करता हुआ दूसरे प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाता है तथा मन, वचन और शरीर से सजीवों की न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से कराता है और न दूसरे के द्वारा का अनुमोदन करता है, वह सूक्ष्म अहिंसा अर्थात् अहिंसाणुव्रत का पालन करने वाला कहा गया है। भावेन जीवों की रक्षा करना ही अहिंसा व्रत है ।
की जानेवाली हिंसा इस प्रकार सर्वतो -
आद्य जैन चिन्तक आचार्य उमावाति ने 'तत्त्वार्थसूत्र' ( ७१४ ) में अहिंसाव्रत के पालन के लिए साधनस्वरूप पाँच भावनाओं का उल्लेख किया है : बचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान
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