Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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जैन साधु और बीसवीं सदी ७९ विभिन्न स्रोतों से बीसवीं सदी की साधु संस्था में निम्न समस्यायें सामने आई हैं : (i)साधुओं की तथा आचार्यों को संख्या दिनों दिन बढ़ रही है। यह अच्छी बात थी, यदि इनकी साधुता,
प्रज्ञा एवं आचारवत्ता आदर्श होती। पर देखा गया है कि इनके बिना भी आज साधुत्व एवं आचार्यत्व मिल रहा है। अनुशासन एवं मूलभूत तत्वों की उपेक्षा हो रही है। ईर्ष्या एवं प्रतिभावता नये-नये संघों को जन्म दे रहे हैं। साधना एवं आत्म-विकास के पथ में राजनोतिक सिद्धान्तों का पल्लवन हो रहा है । बाल-दीक्षायें दी जा रही है। इस स्थिति पर पूर्णतः अंकुश लगना चाहिये । प्रौढ़ अथवा बुद्धि-अनुभव परिपक्चता दीक्षा की अनिवार्य शर्त होना चाहिये । आगमिक और आधुनिक अध्ययन एवं आचार का गहन
अभ्यास भी आवश्यक माना जाना चाहिये। ( ii) साधु एवं आचार्य नित नई संस्थायें बनाते जा रहे हैं। इसका उद्देश्य धर्म और नैतिकता का साहित्यिक
एवं सांस्कृतिक धरातल से प्रसारण माना जाता है। इन संस्थाओं के क्रियाकलाप, कुछ अपवादों को छोड़कर, उद्देश्यों के पूरक सिद्ध नहीं होते। ये स्वावलम्बी बनने के पूर्व ही सिमटने लगती हैं और टिमटिमाने के सिवा इनका प्रकाश विकिरित नहीं हो पाता । दिगम्बर समाज में अनेक संस्थायें प्रारम्म हुई पर उनमें कोई जीवन्त है, ऐसा नहीं लगता। हाँ, विद्वानों के द्वारा स्थापित कुछ संस्थायें अवश्य कमीकभी अपनी चमक दिखाती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में साधु-जन स्थापित अनेक संस्थायें जोवन्त काम कर रही हैं। ये दिगम्बरों के लिये प्रेरक बन सकती हैं। यह सामान्य सिद्धान्त होना चाहिये कि केवल स्वावलम्बन पर आधारित संस्थायें ही खोली जावें और उनमें कम-से-कम एक योग्य एवं जीवनदानी के समान पूर्णकालिक विद्वान् या व्यवस्थापक अवश्य रखा जावे । आज क्रियाशील संस्थाओं की आवश्यकता
है। यह और भो अच्छा है कि विद्यमान संस्थाओं कों ही सक्रिय जीवनदान दिया जावे । (iii) साधु एवं आचार्यों के अध्ययन-अध्यापन के लिये, लेखन तथा प्रकाशन कार्यों के लिये वेतनभोगी कर्मचारी
रखे जाते हैं। बीसवीं सदी में इसे आपत्ति या समस्या नहीं मानना चाहिये और न इसे परिग्रह या संसक्ति का रूप मानना चाहिये । स्वाध्याय एवं ज्ञान-प्रसार साधु का अनिवार्य कर्तव्य है। साधु न केबल आत्मधर्मो ही होता है, वह संध-धर्मी एवं समाजधर्मी भी होता है। नैतिक विकास को उदात्त धाराओं का प्रकाशन और
प्रसारण, एतदर्थ, महत्त्वपूर्ण होता है। (iv) साधु एवं संघनायक सामयिक सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं के समाधान की दिशा में उपेक्षामाव रखते
हैं। उदाहरणार्थ, वर्तमान जटिल परिस्थितियों में तथा धर्म प्रचार हेतु पदयात्रा के साथ-साथ शीघ्रगामी वाहनों का उपयोग एक ज्वलन्त प्रश्न है। कुछ जैन साधुओं ने इस दिशा में नेतृत्व दिया है पर साधु-संघ का बहुमाग इस प्रश्न पर मौन है। कहीं साधु और श्रावकों के मध्यवर्ती एक नयी साधक श्रेणी का गठन हो रहा है जो यानों का उपयोग कर सकती है। इस विषय में कुछ छेद-मार्ग निर्दिष्ट होने चाहिये। जैन शास्त्रों एवं ग्रन्थों के भौतिक जगत् सम्बन्धी अनेक कथन वैज्ञानिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में असंगत प्रतीत होने लगे हैं। उन्हें सुसंगत बनाना भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य दिशा है। वस्तुतः अमर मुनि'४ ने तो यह सुझाव ही दिया है कि धार्मिक मानक ग्रन्थों में आत्म-विकास की प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य चर्चाओं को स्थान नहीं है। अतएव इन ग्रन्थों के संशोधन की आवश्यकता है। जिन तत्त्वों में विसंवाद की संभावना भी हो, वे आत्म शास्त्र के अंग नहीं माने जा सकते । इस मत पर साधु-संघों को गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये।
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