Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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ध्यान
ध्यान का शास्त्रीय निरूपण ११९ । (संहनन) उत्तम हों। दिगम्बर आचार्यों के अनुसार, छह मंहननों में से प्रथम तीन और श्वेताम्बर मतानुसार प्रथम चार उत्तम माने गये है। लेकिन चरम आध्यात्मिक विकास की दशा केवल असामान्य बलशाली शरीर से ही प्राप्त होती है। वर्तमान पञ्चम काल, छठा काल एवं भावी उत्सर्पिणी के छठे एवं पाँचवें काल में आत्मिक चरम विकास (निर्वाण) या अवनति (सप्तम नरक) को शास्त्रीय सम्भावना न होने से अगले ८०-८१ हजार वर्षों में ऐसा बली शरीर किसी को प्राप्त नहीं होगा।
सामान्य मनुष्य के संहनन पाँचवों एवं छठी श्रेणी के होते हैं। आसन एवं प्राणायाम के अभ्यास से इनमें परिवर्तन संभव होता है क्योंकि इनसे शरीर की अन्तरंग ऊर्जा बढ़ जाती है। इससे वे चौथो या तीसरी संहनन कोटि में पहुंचकर ध्यान के अधिकारी हो सकते हैं। संहनन को उत्तमता के मानदण्ड से यह स्पष्ट है कि दिगम्बर ध्यान को प्रक्रिया को अधिक कठोर मापते हैं। दूसरी ओर, यह भी स्पष्ट है कि श्वेताम्बर ध्यान की प्रक्रिया को अधिक व्यापक और प्रभावशाली बनाने की ओर अग्रसर रहे हैं। (ii) पुणस्थानों का आधार
संहनन की विशेषता के अतिरिक्त आत्मिक विकास के चरणों (गुणस्थानों) के आधार पर भी शास्त्रों में ध्याता को अभिलक्षणित किया गया है । इसे सारणी ३ में दिया गया है । इससे यह स्पष्ट है कि तीसरे गुणस्थान तक सारणी ३. ध्यान के अधिकारी गुणस्थान का आधार
गुणस्थान १. आर्त ध्यान
४-६ गुणस्थान २. रौद्र ध्यान
४-५ , ३. धर्म ध्यान
४-१२ ,, ४. शुक्ल ध्यान
१०-१४ , व्यक्ति में ध्यान की क्षमता नहीं आती । यह मान्यता उपरोक्त चर्चा की दृष्टि से पुनर्विचारणीय प्रतीत होती है । कुमार कवि ने आरंभक, ध्याननिष्ठ एवं निष्पन्नयोगी के रूप में ध्याताओं की तीन कोटियां बताई हैं।
इस प्रकार ध्यान के अधिकारी ऐसे सभी सामान्य एवं साधु धर्मी व्यक्ति हो सकते हैं जिनका शरीर पुष्ट एवं बलवान हो एवं जो राजसी एवं साविक वृत्तियों की ओर उन्मुख हों। शरीर की बलशालिता एवं मनोवृत्तियों को कोटि ध्यान की कोटि एवं योग्यता के मापदण्ड है। प्रेक्षा और समीक्षा ध्यान की पद्धति का विकास और प्रभाव इसो मान्यता पर आधारित हैं। (ब) ध्यान के प्रकार
भगवती, स्थानांग, तत्वार्थ सूत्र, ज्ञानार्णव और अन्य ध्यान-साहित्य में ध्यान के मुख्यतः चार भेद बताये गये है-(i) आतं (ii) रौद्र (iii) धर्म या धर्म्य एवं (iv) शुक्ल । सभी उत्तरवर्तो आचार्यों ने इसे माना है । फिर भी विवेचन की दृष्टि से ज्ञानार्णव में इन्हें तीन कोटियों में वर्गीकृत किया गया है : (i) अप्रशस्त : आर्त, रौद्र
अशुभाशय, अशुभ लेश्या, पापबन्ध, दुर्गति । (ii) प्रशस्त : धर्म्य, शुक्ल
पुण्याशय, शुभ लेश्या, पुण्यबन्ध, स्वर्ग । (iii) शुद्ध : शुक्ल (अन्तिम पद) आत्मोपलब्धि, स्वर्ग, मुक्ति ।
अप्रशस्त ध्यान लौकिक तथा व्यक्तिगत रागद्वेष-प्रेरित होते हैं । अत; उन्हें हेय ही माना जाता है । प्रशस्त ध्यान शरीर एवं मन को शुद्ध कर साम्य, समरसता एवं अन्तर्मुखता उत्पन्न करते हैं, अतः वे उपादेय है। पूर्वोक्त शास्त्रीय मान्यता के परिप्रेक्ष्य में केवल धर्म ध्यान ही हमारे लिये, वर्तमान में, उपादेय बचता है।
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