Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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१३८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
(१६) स्वामी राम ने अमेरिका में ध्यानाभ्यास से अपनी इच्छा-शक्ति को तीन एवं नियन्त्रित करने में सफलता पाई है।
इससे वे अनेक सिद्धियां प्रदर्शित करते हैं। (१७) ध्यान अभ्यास से सीजोफ्रेनिया (अन्तराबंध) के समान अनेक मानसिक बीमारियां दूर हो जातो हैं। मन्त्र जपन से
शिथिलता एवं एकाग्रता प्राप्त होतो है । यह ध्यान को अन्य विधाओं से भी सम्भव है। (१८) ध्यान के समय प्रारम्भ में मनुष्य के वातावरण में ऐल्फा-तरंगों (८-१५ हज) की मात्रा बढ़ जाती है। ये
मस्तिष्क की शक्ति एवं शांति की प्रतीक है। बाद में ये तरंगें ४०-४५ साइकल प्रति सेकेण्ड की तीब्रगामी तरंगों में परिणत हो जाती है।
ध्यान के विभिन्न प्रभावों की वैज्ञानिक व्याख्या
हमारी सजीवता के संचालन के मुख्य स्रोत आहार और श्वासोच्छ्वास है । यद्यपि उदर हमारे दृश्य आहार का प्रमुख केन्द्र है, पर आवेग, संवेग और विचार भी तो हमारे मस्तिष्क में आते जाते हैं। इस तरह हमारा उदर तीन प्रकार का होता है जिसमें आहार जावे, जिसमें विचार जावे और जिसमें भावनायें आवें। ये आहार हो श्वासोच्छ्वास तथा शरीर तन्त्र में विद्यमान अनेक स्रावों, ऐन्जाइमों और पाचक रसों की सहायता से होने वाली चयापचयी क्रियाओं के माध्यम से हमें जीवन शक्ति प्रदान करता रहता है। हमारे शरीर की अगणित कोशिकायें इन्हीं क्रियाओं से जीवनशक्ति प्राप्त करती हैं। यदि इन्हें नियमित रूप से और समुचित मात्रा में ऊर्जा न मिले, तो इनके कार्य एवं सामञ्जस्य में बाधा आ सकती है। एक स्थल की बाधा सम्पूर्ण तन्त्र को प्रभावित करती है। यद्यपि शरीर-तन्त्र पर सभी प्रकार के सहज संचालन का दायित्व है, पर तन्त्र की जटिलता को देखते हए इसमें समय-समय पर, स्थानस्थान पर परिवेश एवं विद्यत लघपथों के कारण असन्तुलन, अवरोध. अपक्षय आदि सम्भावित है। ध्यान के विविध रूपों के अभ्यास से ये बाधाएं दूर होती हैं और तन्त्र शक्तिशाली, स्थिर एवं नियमित बना रहता है ।
ध्यान की एक सौ बारह प्रक्रियाओं में प्रमुख आसन और प्राणायाम के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं-(i) शरीर के विभिन्न तन्त्रों को लचीला एवं क्रियाशील बनाये रखना तथा (ii) श्वासोच्छ्वास के द्वारा सम्पूर्ण शरीर और उसके विविध अंगों में वायु या ऑक्सीजन पहुँचाना । प्रारम्भ में यह श्वासोच्छ्वास ही 'प्राण' माना जाता था, इसी से प्राणी नाम है। इससे फेफड़ों एवं रक्त के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर तन्त्र के कार्यकारी घटकों में ऑक्सीजन पहुँचाया जाता है। इसके समचित अभ्यास से चयापचयी क्रिया को पूर्णता से पूर्वोक्त अनेक बाधायें दूर होती हैं और दोघंजीविता आतो है। यह देखा गया है कि अधिकांश प्राणियों में यह आदर्श स्थिति नहीं होती। अनेक कारक इस असन्तुलित स्थिति को जन्म देते * प्राणायाम की श्वासाच्छवास प्रक्रिया को तीब्रता, मन्दता या स्तम्भन शरीर तन्त्र में अधिक वायु प्रदान करता है। इससे उपरोक्त कारणों से दमित या मन्दित चयापचयो क्रियाओं एवं अवरोधों में समाप्ति की दशा बनती है। इससे कोशिकीय विकास सहज गति से होता रहता है ।
शरीर की अन्तःऊर्जा कोशिकाओं को सक्रियता एवं चयापचयी क्रियाओं की पूर्णता पर निर्भर करती है। ध्यान द्वारा ये दोनों ही लक्ष्य प्राप्त होते हैं । फलतः शरीर में ऊर्जा की मात्रा संतुलित और वर्धमान होती है । चयापचयी क्रियाओं में उत्पन्न ऊर्जा ही प्राणशक्ति कहलाती है । निश्चित रूप से यह पांच प्रकार के प्राणों से सूक्ष्मतर है । सामान्यतः प्राण अणु होते हैं, क्रिया के समय वे परमाणुरूप हो जाते हैं और उपयोगिता के समय वे शक्तिरूप में व्यक्त होते हैं। इस प्रकार प्राण उत्तरोत्तर सूक्ष्मतर होते जाते हैं। यह पाया गया है कि ध्यान इस शक्ति में वृद्धि करता है । यह शक्ति और इसका संकेन्द्रण ही ध्यान के अतिरिक्त उसके विविध सहयोगो रूप-मंत्र, जप आदि से होने वाले शिथिलीकरण एवं
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