Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
१६० पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद प्रन्य
[ खण्ड
प्रतीक है। इसके विपर्यास में, गैरिक वर्ण उदासीन एवं उच्चतम चेतना का उत्प्रेरक माना गया है। फलतः पीतवर्ण से गैरिक एवं रक्तवर्ण अधिक अध्यात्मप्रमुख है। इस प्रकार वर्ण या रंग अपेक्षा दृष्टि से भौतिक एवं आध्यात्मिक-दोनों प्रकार के प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं । भौतिक स्तर पर पीले और लाल रंगों को तमोगुणी या रजोगुणी कहा जा सकता है, पर आध्यात्मिक स्तर पर तो इन्हें सतोगुणी ही कहना चाहिये। इसीलिये इनको ऊष्मावर्धक, कषायनाशक, सरलताकारी माना गया है। वस्तुतः सभी वर्गों के भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रभाव होते हैं और सापेक्षतः भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के विपरीत प्रभाव प्रदर्शित करते हैं। इसीलिये शास्त्रों में इन्हें उमय प्रकार का बताया गया है । लेश्या का धार्मिक महत्त्व
जैन दर्शन में लेश्या का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कर्मशास्त्रीय भाषा में लेश्या हमारे कर्म-बन्धन और मुक्ति का कारण है। यद्यपि जीवात्मा स्फटिक मणि के समान निर्मल और पारदर्शी है, पर लेश्या के माध्यम से आत्मा का कर्मों के साथ श्लेष या चिपकाव होता है। इसी के द्वारा आत्मा पुण्य और पाप से लिप्त होती है। कषाय द्वारा अनुरंजित योग-प्रवृत्ति के द्वारा होने वाले भिन्न-भिन्न परिणामों को, जो कृष्णादि अनेक रंग वाले पुद्गल विशेष के प्रभाव होते हैं, लेश्या कहा जाता है। कर्म-बन्धन के दो कारण हैं-कषाय और योग । कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्ध होते हैं। प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग से होते हैं। स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय से
होते हैं।
___कर्मशास्त्रीय भाषा में लेश्या आस्रव और संवर से जुड़ी है। आस्रव का अर्थ कर्मों को भीतर आने देने का मार्ग है। जब तक व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण रहेगा, मन-वचन-शरीर पर नियन्त्रण नहीं होगा, राग-द्वेष की भावना से मुक्त नहीं बन पायगा, तब तक वह प्रतिक्षण कर्म-संस्कारों का संचय करता रहेगा। आगमों में लेश्या के लिये एक शब्द आया है-"कर्म निर्झर"।" लेश्या कर्म का प्रवाह है। कर्म का अनुभाव-विपाक होता रहता है। इसलिये जब तक आश्रव नहीं रुकेगा, लेश्याएं शुद्ध नहीं होगी। लेश्या शुद्ध नहीं होगी तो हमारे भाव, संस्कार, विचार और आचरण भी शुद्ध नहीं होंगे। इसलिये संवर की जरूरत है। संवर भीतर आते हुए दोष प्रवाह को रोक देता है। बाहर से अशुभ पुद्गलों का ग्रहण जब भीतर नहीं जाएगा, राग-द्वेष नहीं उभरेंगे, तब कषाय की तीव्रता मन्द होगी, कर्म बन्ध की प्रक्रिया रुक जाएगी। लेश्या का आधुनिक विवेचन
हम दो व्यक्तित्वों से जुड़े है : १. स्थूल व्यक्तित्व २. सूक्ष्म व्यक्तित्व । इस भौतिक शरीर से जो हमारा सम्बन्ध है, वह स्थूल व्यक्तित्व है। इसको जानने के साधन हैं-इन्द्रियां, मन और बुद्धि। पर सूक्ष्म व्यक्ति को इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता। जैन दर्शन में स्थूल शरीर को औदारिक और सूक्ष्म शरीर को तेजस तथा कार्मण शरीर कहा है। आधुनिक योग साहित्य में स्थूल शरीर को फिजिकल बॉडी ( Physical body ) और सूक्ष्म शरीर को ऍथरीक बॉडी ( Etheric body ), तेजस शरीर को ऐस्ट्रल बॉडी ( Astral body ) कामग शरीर को कार्मिक बाँडी ( Karmic body ) कहा है। लेश्या दोनों शरीर के बीच सेतु का काम करती है। यही वह तत्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व का रूपान्तरण, वृत्तियों का परिशोधन और रासायनिक परिवर्तन होता है ।
लेक्ष्या को जानने के लिये सम्पूर्ण जीवन का विकास क्रम जानना भी जरूरी है। हमारा जीवन कैसे प्रवृत्ति करता है ? अच्छे, बुरे संस्कारों का संकलन कैसे और कहाँ से होता है ? भाव, विचार, आचरण कैसे बनते हैं ? क्या हम अपने आपको बदल सकते हैं ? इन सबके लिये हमें सूक्ष्म शरीर तक पहुँचना होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org