Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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सुख-शान्ति की प्राप्ति का उपाय : सहज राजयोग १७३ (१) सच्चा सुख विषय-विकारों वाले सांसारिक जीवन में नहीं होता। इसलिये भोगी जीवन को छोड़ने के लिये
पुरुषार्थ करना है। (२) देह-अभिभान के स्थान पर आत्म-अभिमान की प्रमुखता है । नास्तिक लोग परमात्मा को नहीं मानते, अतः
उन्हें योग से पूर्ण लाम नहीं मिल पाता । हमारी आत्मा का धर्म पवित्रता और शान्ति है। इससे मतुष्य को इन दैवी गुणों को प्राप्ति का पुरुषार्थ
करना है । इसके लिये परमात्मा की भक्ति, बल एवं समर्पित भावना का अभ्यास किया जाता है । (४) संसार में परमात्मा को कल्याणकारी स्वरूप का प्रतिनिधि मानकर उसकी और ध्यान लगाने में ही जीवन की
सार्थकता है। (५) कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद सत्य हैं। इनमें आस्था अनिवार्य है। इस आधार पर संसार को नाटक के
परिवर्तनशील दृश्यों के समान मानना चाहिये । योगी होने के लिये यह नियतिवादी और परमात्माभिमुखी
वृत्ति लाभकारी होती है। (६) संसार की परिवर्तनीयता एवं क्षणभंगुरता में अटूट विश्वास होना चाहिये। यह परमात्मा के प्रति अभिमुखता
को प्रेरित करता है। निश्चयात्मक वृत्ति के विकसित होने पर (१) अनासक्त वृत्ति या समर्पणमयता (२) बुद्धि संतुलन एवं परमात्म-गण-संस्मरण (३) आहार शद्धि (४) सरलता एवं समान बनि (५) ब्रह्मचर्य का अभ्यास, योग प्रक्रिया और उसके लाभों को सबल बनाता है। वस्तुतः इन वृत्तियों के बिना योगाभ्यास सम्भव ही नहीं है। इन गुणों के विकास के लिये सत्संग या गुरु-संग वड़ा सहायक होता है।
राजयोग के अभ्यास के लिये कोई कठिन क्रिया, आसन या प्राणायामादि करने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिये तो परमात्मा का स्मरण, उसके प्रति भक्तिभाव और उसके गुणों का चिन्तन ही आवश्यक है। इसके लिये लोकोत्तर स्थिति के प्रति मन को लगाना पडेगा। दिन-रात में सात वार तक १५-१५ मिनट के लिये मंत्र, माला या जप आदि का अभ्यास कर साधना करनी पड़ती है। 'मरजीवा' वृत्ति ( देहाभिमान छोड़कर आत्मवृत्ति ) तथा अतीत को भुलाने का अभ्यास करना पड़ता है।
योगम्यास के लिये सुखदायी आसन होना चाहिये । किंचित् एकान्त स्थान होना चाहिये । यह वन या वसतिकहीं भी हो सकता है । अभ्यास के समय नेत्र बन्द रहें या खुले रहें, कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसके बाद आत्मा या परमात्मा के गुणों का मनन या विचार करना चाहिये। इन विचारों से तन्मयता, स्मृति की एकतानता तथा तल्लीनता उत्पन्न होगी। इस अभ्यास के समय वर्तमान चंचल मनोदशाओं के कारण अनेक संकल्प विकल्प भी मन में आते रहते हैं। अपनी संकल्पशक्ति से इनकी उपेक्षा करनी चाहिये । देह के प्रति अनासक्ति भाव जागृत होने पर ही योगशक्ति प्रकट होती है। योगाभ्यास से अशुद्ध संकल्प दूर होते हैं, दिनचर्या सुधर जाती हैं। इससे आठ प्रकार को शक्तियां प्राप्त होती हैं :-(i) निर्णय शक्ति (ii) परीक्षा शक्ति (iii) समेटने की शक्ति (iv) सामना करने की शक्ति (v) सहनशक्ति (vi) संकोच-विस्तार शक्ति (vii) समत्व शक्ति तथा (viii) समन्वय एवं सहयोग शक्ति। इन शक्तियों को ही सिद्धि, क्षमता या योग्यता कहते हैं। ये शक्तियां मनुष्य की महानता की सूचक हैं । ये ही आत्मा के पूर्णविकास की सूचक हैं । इनका रूप भौतिक एवं आध्यात्मिक-दोनों प्रकार का होता है। ये शक्तियां संसार को सुखशान्तिमय बनाने के लिये आवश्यक है। प्रारम्भिक योगाभ्यास लक्ष्य केन्द्रित (नासिकाग्र, नाभिकमल) होता है पर अन्तर्मुखता बढ़ने पर वह आत्मकेन्द्रित हो जाता है। तब ये वाह्य शरीर केन्द्र अनुपयोगी हो जाते हैं। योगाभ्यास की प्रगति के साथ व्यक्ति को मानसिक अवस्थाओं में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता है। इन अवस्थाओं के नाम क्रमशः-(i) लग्न या व्युत्थान, ( ii) मनन या
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