Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
आचार्य हरिभद्र को आठ योग दृष्टियाँ श्री सतीश मुनिजी खाचरोद, (म० प्र०)
वैदिक, बौद्ध और जैन-तीनों परम्पराओं में योग की महत्ता स्वीकार की गई है । यद्यपि प्रारम्भ में इसकी परिभाषाओं में कुछ अन्तर प्रतीत होता था, पर सातवीं-आठवीं सदी और उसके बाद तभी धाराओं ने पतंजल के योगसूत्र के अनुसार अध्यात्मपरक चित्तवृत्ति-निरोध की परिभाषा को स्वीकार किया। संक्षेप में. सभी परम्पराओं में योग का अर्थ, "समस्त आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास कराने वाली प्रक्रिया" या "समस्त आत्मगुणों को अनावृत करने वाली आत्माभिमखी साधना" समझना चाहिये ।
___ कुंदकुंद, समन्तभद्र, पूज्यपाद, सिद्धसेन आदि सभी प्रमुख जैन आचार्यों ने ध्यान के रूप में योग का ही वर्णन किया है। इसके पूर्व समवायांग में ३२ प्रशस्त योगों तथा उत्तराध्ययन में संवेग से लेकर अकर्मता तक ७३ पदों का वर्णन किया गया है। वर्णन की दृष्टि से यह पतंजल-विवरण से भिन्न प्रतीत होता है, पर भाव और अर्थ की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त समरूपता है। उत्तरवर्ती काल में हरिभद्र, हेमचंद्र, शुभचंद्र तथा यशोविजय गणि के योग विवरण मुख्यतः पतंजल योग पर आधारित हैं । इन सभी के वर्णनों की अपनी-अपनो विशेषता है । यह विशेषता ही इन आचार्यों की मौलिकता है ।
जैनाचार्यों में आठवीं सदी के प्रमुख आचार्य हरिभद्र ( ७००-७७० ई० ) सर्वप्रथम हैं, जिन्होंने पतजल का अनुसरण कर योग विषयक चार प्रन्थ लिखे हैं : योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगशास्त्र और योग विशिका । इनके षोडशक में भी कुछ प्रकरण योग से सम्बन्धित है, पर इनका वर्णन उपरोक्त चार ग्रन्थों में समाहित हो जाता है। इनमें प्रथम दो अथ संस्कृत में है और शेष दो प्राकृत भाषा में हैं। योगबिन्दु में ५२७ श्लोक हैं, योगदृष्टि समुच्चय में २२७ श्लोक, योगशतक में नाम के अनुसार १०० तथा योग विशिका में २० गाथाएँ हैं।
आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में योग के विवरण में योगदृष्टियों की अपेक्षा विवेचना की है। यह विवेचना उनकी मौलिकता का प्रतीक है। उन्होंने इच्छा योग, शास्त्र योग एवं सामर्थ्य योग के रूप में योग प्रक्रिया के तीन स्तर बताये है और योग सन्यास को मुक्ति का कारण कहा है। हरिभद्र ने मानव की सत्य से सम्बन्धित धारणाओं को 'दृष्टि' कहा है । अज्ञानकाल की अवस्था 'ओघ दृष्टि या सहज दृष्टि' तथा ज्ञानकाल की अवस्था 'योगदृष्टि या सम्यग्दष्टि' कहलाती है। उन्होंने अष्टांग योग के वर्णन के बाद उससे प्राप्त होने वाली आठ प्रकार की दष्टियों का निरूपण किया है । अष्टांग योग के प्रचलित नाम निम्न है : (१) यम : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । (२) नियम : शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान । (३) आसन : वैसे तो आसन अनेक प्रकार के बताये गये हैं, लेकिन उनमें ८४ विवेचनीय हैं। इनमें भा सिद्धासन,
पद्मासन, स्वस्तिकासन, सिंहासन-इन चार को प्रमुख माना है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org