Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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१२६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
(ii) बुद्ध और पतंजल की तुलना में, जैन ध्यान प्रक्रिया का अभ्यास अधिक कठोर प्रतीत होता है । परीषहसहन, बारह भावनाओं का अभ्यास, कठिन चारित्र, मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों के नियंत्रण का प्रारम्भ से ही अभ्यास तथा अन्य बातें अन्य पद्धतियों में उतनी महत्वपूर्ण नहीं है।
(ii) अन्य पद्धतियों की तुलना में जैनों के ध्यान-वर्गीकरण की पद्धति अधिक सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण है। यही कारण है कि अष्टांग योग ने सत्तावनी संवर का रूप ले लिया।
(iv) जैन ध्यान पद्धति (प्रशस्त) विश्लेषणात्मक अधिक है। यह बुद्ध की विपश्यना पद्धति से अधिक संगति रखती है।
(v) जैन ध्यान पद्धति आन्तरिक विकास के विभिन्न चरणों पर आधारित है। अन्य पद्धतियों में इन चरणों का कोई संकेत नहीं है।
(vi) आध्यात्मिक दृष्टि से, जैन ध्यान पद्धति कर्मवाद की धारणा पर आधारित है। जैसे-जैसे ध्यान को कोटि उन, तीक्ष्ण या सक्ष्मतर होती जाती है, वैसे ही कर्म-बंध क्षीण होते जाते हैं। इससे शैलेशी तथा अकर्मता की स्थिति प्राप्त होती है। अन्य पद्धतियों में यह आधार भी नहीं है।
ध्यान लौकिक और अलौकिक सिद्धियाँ
ध्यान की अनेक चरणी प्रक्रिया को अपनाने वाले साधकों का अनुभव है कि जैसे ही वे आसन और प्राणायाम को साध लेते हैं, उन्हें अपने अन्दर असीम शक्ति-सम्पन्नता का अनुभव होता है। ध्येय के प्रति चित्त की स्थिरता के अभ्यास के समय अनेक ऐसी स्थितियां आती हैं, जो ध्यान से विचलित करने वाली होती है। इन स्थितियों से पार पाकर जब साधक स्थिर ध्यानी हो जाता है, तो उसकी अन्तःशक्ति की वृद्धि से साधक में अनेक लक्षण प्रकट होते है, जो असामान्य या अति-मानवीय प्रतीत होते हैं । ये लक्षण ही लब्धि, सिद्धि, ऋद्धि या विभूति कहलाते हैं। ये ध्यान से संचित अन्तःशक्ति के व्यक्त प्रकटन मात्र हैं, जो उसके माहात्म्य को प्रकट करते हैं । आतिशी शीशे से सूर्य-किरणों की ऊर्जा के कागज पर संकेन्द्रण से जैसे कागज जल जाता है, उसी प्रकार इस आत्मिक शक्ति के विभिन्न उद्देश्यों हेतु संकेन्द्रण करने पर अनेक अनुरूपी प्रभाव उत्पन्न होते हैं।
योग और ध्यान की सभी पद्धतियों में साधक के ऐसे अनेक लक्षणों का उल्लेख है। जैन शास्त्रों में भी इन लक्षणों की विविधता एवं वर्गीकरण पाया जाता है। इसीलिये जहाँ भगवती सूत्र में केवल दस लब्धियाँ (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, इन्द्रिय और चारित्रा-चारित्र) बताई गई हैं, वहीं त्रिलोक प्रज्ञप्ति में आठ कोटि की ६४ लब्धियां बताई गई है। विद्यानुवाद तो ४८ लब्धियों का ही निरूपण करता है। इनका वर्णन धवला भाग ४ (४४), मंत्रराज रहस्य (५०), आवश्यक नियुक्ति (२८) तथा प्रवचनसारोद्धार (२८) में भी है। भगवती आराधना में भो इनका कुछ वर्णन है । ज्ञानार्णव में वायुजय से परकाया प्रवेश के साथ मंत्र-जप-ध्यान से अतीन्द्रिय ज्ञान, विक्रिया लब्धि, ज्योतिर्मयता, देववशित्व, श्रुतज्ञता, बोधिज्ञान आदि लब्धियों का उल्लेख है। इन सभी ऋद्धियों के विषय में जैनों की यही मान्यता है कि "ते समाधौ उपसर्गाः, व्युत्त्थाने सिद्धयः।" अतः आत्मिक विकास की दृष्टि से ये ध्यान के आनुषंगिक फल है, मुख्य नहीं। ये फल माहात्म्य की दृष्टि से एवं कुतूहल की दृष्टि से प्रकट किये जाते हैं। यह ठीक उसी प्रकार समझना चाहिये जैसे गेहूँ की मुख्य फसल के साथ आनुषंगिक रूप से प्याल भी मिलता है। प्याल के समान सिद्धियाँ भी ऐहिक जीवन के लिये उपयोगी हैं। इनसे यह पता चलता है कि ध्यान ठीक दिशा में चल रहा है । जैन शास्त्र यह मानते है कि उत्तम ध्यानावस्था हेतु ये सिद्धियाँ उपेक्षणीय हैं। इसीलिये सिद्धि मात्र के लिये किया जाने वाला ध्यान, सैद्धान्तिक दृष्टि से दुर्ध्यान कहा जाता है ।
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