Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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९२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
( कुछ प्रकाशित हो गये हैं और कुछ प्रकाशित हो रहे हैं) के माध्यम से उनके शोध / लेखन कार्यों की जानकारी दी गयी है । पर यह पूर्ण है, इसमें सन्देह हैं, क्योंकि केवल एक ग्रन्थ को छोड़कर अन्य ग्रन्थों में लेख / शोध-लेख/कृतियों सम्बन्धी विस्तृत सूची नहीं मिलती । तत्तत् प्रकाशन संस्थाओं से अनुरोध है कि वे सम्बन्धित विद्वानों के लेख / शोध लेख / मौलिक / सम्पादन / अनुवाद कार्यों की विषयवार सूची प्रकाशित कर उससे सम्बन्धित जानकारी को पूर्ण करने की दिशा में अग्रणी बनें ।
इस लेख में हम यहाँ इस सदी के आठवें दशक में काम करने वाले कुछ शोधकर्ताओं का संक्षिप्त विवरण देना चाहते हैं । इनकी विशेषज्ञता प्राय: जैनेतर विषयों ( विज्ञान, गणित, इतिहास आदि ) में रही । इनकी आजीविका का क्षेत्र भी, इसलिये, जैन संस्थाओं और समाज से भिन्न रहा है । फिर भी, उन्होंने जैन धर्म एवं संस्कृति के प्रति रूचि होने से इसके साहित्य में विद्यमान वैज्ञानिक, गणित, ज्यौतिष, पुरातत्व आदि भौतिक पक्षों को तुलनात्मक दृष्टि से उद्घाटित करने में महान् भूमिका निभाई है । इसमें मध्य प्रदेशवासियों को गौरवपूर्ण शोध के निरूपण का प्रारम्भ है । मुझे आशा है कि अन्य विद्वज्जन और प्राप्त करने का यत्न करेंगी और उसे उपाधि निमित्तक शोध प्रकाशनों के (अ) उपाधि निरपेक्ष शोधकर्ता
स्थान प्राप्त है । यह विवरण उपाधि-निरेपक्ष संस्थाएं इस प्रकार की शोधों का पूर्ण विवरण समान सुलभ करेंगी ।
१. श्री बालचंद्र जैन ( १९२४ - ) : आप छतरपुर जिले के गोरखपुरा ग्राम के वासी है और शिक्षा-दीक्षा एवं आजीविका के दौरान कटनी, बनारस, रायपुर, भोपाल और जबलपुर में रहकर आजकल सेवा निवृत्ति के बाद जबलपुर को अपना निवास बनाये हुए हैं । इन्होंने जैनधर्म में शास्त्रो साहित्य में शास्त्रो एवं प्राचीन भारतोय इतिहास व संस्कृति में एम० ए० किया हैं । इन्होंने विदर्भ और महाकोशल के सिक्कों पर अध्ययन हेतु शोध प्रारंभ की थी पर उसे पूरी नहीं कर सके | इनका अधिकांश सेवाकाल पुरातत्व विभाग में बीता है । इन्होंने तीन दर्जन से अधिक शोधपत्र लिखे हैं । एक दर्जन से अधिक निर्देशिकायें लिखी हैं। 'जेन प्रतिमा विज्ञान' पर एक मानक पुस्तक भी लिखी है। आप सिक्काविज्ञान एवं मूर्तिकला के सुज्ञात विशेषज्ञ हैं । उनके शोधपत्रों में राजपालदेव, नन्नराज, प्रवरराज, दलपतशाह, भोजदेव, त्रैलोक्यवर्मा, व्याघ्रराज, शिवदेव, क्रमादित्य, महेन्द्रादित्य एवं विजयसिंह आदि राजाओं के समय के सिक्कों एवं इतिहास पर नई रोशनी डाली है । इन्होंने रतनपुर, पचराई, गुडर ( म० भारत ), कुरुद, कारीतानाई, जटाशंकर आदि को जैन तथा जैनेतर कलाओं पर तथा गोंड, कलचुरी और नागवंशों के इतिहास पर काफी काम किया है। आपने विध्यमहाकोशल के अनेक ऐतिहासिक जैन कलाकेन्द्रों का पता लगाया तथा उन पर अध्ययन किया। सेवानिवृत्त होने पर भी • आप अपने शोधकार्यों में लगे हुए हैं। आजकल आप अस्वस्थ हैं ।
२. श्री नीरज जैन ( १९२६ - ) : रीठो ( सागर ) ग्राम जैन विद्वानों एवं समाज सेवियों को खान कहा जा सकता है । शिक्षा-दीक्षा, आजीविका तथा समाजसेवी प्रवृत्तियों के बीच आप मुख्यतः सागर और सतना में रह हैं । अध्ययन के प्रति रुचि ऐसी कि आपने ४५ वर्ष को वय के बाद बी०ए० और एम०ए० किया । प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी के सम्पर्क एवं शिष्यत्व ने इन्हें काव्य-रस से पुरातत्त्व रस की ओर मोड़ा । उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार, आपने बुन्देलखण्ड के ज्ञात-अज्ञात तीर्थ क्षेत्रों पर अनेक शोध लेख तथा लोकप्रिय लेख लिखे हैं । पतयानदाई, नवागढ़, चित्तौड़, बजरगगढ़, मड़ई, राजघाट, अजयगढ़, ग्वालियर आदि की अल्पज्ञात जैन-कलाओं पर आपके अनेक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए हैं । काव्य-रस से ओतप्रोत आपकी दो ऐतिहासिक पुस्तकें भी ( गोमटेश गाथा, सहस्राब्दि समारोह) अभा प्रकाशित हुई है । आप अभी भी जैन स्थापत्य, मूर्ति एवं पुरातत्व के क्षेत्र में काम कर रहे हैं तथा अनेक अखिल भारतीय संस्थाओं से सम्बद्ध हैं ।
३. श्री एल० सी० जैन ( १९२६ - ) : सागर में जन्मे अध्यापक पुत्र श्री जैन बचपन से ही प्रतिभा के धनी रहे हैं । सागर और जबलपुर की शिक्षा-दीक्षा के बाद आपने स्वाध्यायो छात्र के रूप में गणित में
एम० ए० किया ।
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