Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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९६ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
ने अपने युग में परम्परागत मान्यताओं में युगानुरूप नाम, भेद, अर्थ और व्याख्याओं में परिवर्धन, संशोधन तथा विलोपन कर स्वतंत्र चिन्तन का परिचय दिया है। इनके समय में ज्ञानप्रवाह गतिमान् रहा है। इस गतिमत्ता ने ही हमें आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दृष्टि से गरिमा प्रदान की है। हम चाहते हैं कि इसो का आलंबन लेकर नया युग और भी गरिमा प्राप्त करे। इसके लिये मात्र परंपरापोषण की दृष्टि से हमें ऊपर उठना होगा। आचार्यों की प्रथम तीन कोटियों की प्रवृत्ति का अनुसरण करना होगा। उपाध्याय अमर मुनि ने भी इस समस्या पर मन्थन कर ऐसी ही धारणा प्रस्तुत की है। हम इस लेख में कुछ शास्त्रीय मन्तव्य प्रकाशित कर रहे हैं जिनसे यही मन्तव्य सिद्ध होता है।
आचार्यों और प्रन्थों की प्रामाणिकता
हमने जिनसेन के 'सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः' के रूप में आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों की प्रामाणिकता की धारणा स्थिर की है। पर जब विद्वज्जन इनका समुचित और सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, तो इस धारणा में सन्देह उत्पन्न होता है एवं सन्देह निवारक धारणाओं के लिये प्रेरणा मिलती है।
सर्वप्रथम हम महावीर को आचार्य परम्परा पर ही विचार करें। हमें विभिन्न स्रोतों से महावीर निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्षों की आचार्य परम्परा प्राप्त होती है। इसमें कम-से-कम चार विसंगतियां पाई जाती हैं। दो का समाधान जंबूद्वीप प्रप्ति से होता है, पर अन्य दो यथावत् बनी हुई हैं : (i) महावीर के प्रमुख उत्तराधिकारी गौतम गणधर हुए। उसके बाद और जंबू स्वामी के बीच में लोहार्य और
सुधर्मा स्वामी के नाम भी आते हैं । यह तो अच्छा रहा कि जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में स्पष्ट रूप से सुधर्मा स्वामी और लोहार्य को अभिन्न बनाकर यह विसंगति दूर की और तीन ही केवली रहे ।
(ii) पांच श्रुतकेवलियों के नामों में भी अन्तर है। पहले ही श्रुतकेवलो कहीं 'नन्दी' हैं तो कहीं 'विष्णु' कहे गये
हैं। इन्हें विष्णुनंदि मानकर समाधान किया गया है । (iii) धवला में सुभद्र, यशोभद्र, मद्रबाहु एवं लोहाचार्य को केवल एक आचारांगधारी माना है जबकि प्राकृत
पद्रावली में इन्हें क्रमशः १०, ९,८ अंगधारी माना है। इस प्रकार इन चार आचायों की योग्यता विवादग्रस्त है।
(iv) ६८३ वर्ष की महावीर परम्परा में एकांगधारी पुष्पदंत-भूतबलि सहित पांच आचायों ( ११८ वर्ष ) को
समाहित किया गया है और कहीं उन्हें छोड़कर ही ६८३ वर्ष की परम्परा दी गई है जैसा सारणी। से स्पष्ट है । एक सूची में १०, ९, ८ अंगधारियों के नाम ही नहीं हैं।
फलतः आचार्यों की परम्परा में ही नाम, योग्यता और कार्यकाल में भिन्नता है। यह परम्परा महावीर-उत्तर कालीन है। महावीर ने विभिन्न युग के आचार्यों के लिये भिन्न-भिन्न परम्परा के लेखन की दिव्यध्वनि विकीर्ण न की होगी। आधुनिक दृष्टि से इन विसंगतियों के दो कारण संभव हैं :
(अ) प्राचीन समय के विभिन्न आचार्यों और उनके साहित्य के समुचित संचरण एवं प्रसारण की व्यवस्था
और प्रक्रिया का अभाव ।
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