Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन ९७
(ब) उपलब्ध प्रत्यक्ष, अपूर्ण या परोक्ष सूचनाओं के आधार पर परम्परापोषण का प्रयत्न ।
नये युग में ये ही कारण प्रामाणिकता में प्रश्नचिह्न लगाते हैं। फिर, यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि कौन-सी सूची प्रमाण है ?
सारणी १. धवला और प्राकृत पट्टावली की ६८३ वर्ष-परम्परा
धवला परम्परा प्राकृत पट्टावली परम्परा ३. केवली
६२ वर्ष ५. भुतकेवली
१००,
१०० ,, ११. दशपूर्वधारी
१८३
१८३ ॥ ५. एकादशांगधारी
१२३ ॥ ४. १०, ९, ८ अंगधारों ४. एकांगधारी
११८ , (पांच एकांगधारी)
६२ वर्ष
६८३
मूलाचार के अनुसार, आचार्य शिष्यानुग्रह, धर्म एवं मर्यादाओं का उपदेश, संघ-प्रवर्तन एवं गण-परिरक्षण का कार्य करते हैं । अन्तिम दो कार्यों के लिये एतिहासिक एवं जीवन परम्परा का ग्रथन आवश्यक है। पर प्रारम्भ के प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों का जीवनवृत्त अनुमानतः ही निष्कर्षित है। आत्म-हितैषियों के लिये इसका महत्व न भी माना जावे, तो भी परम्परा या ज्ञानविकास की क्रमिकधारा और उसके तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय संस्कृति की इस इतिहास-निरपेक्षता को वृति को गुण माना जाय या दोष-यह विचारणीय है। एक ओर हमें 'अज्ञातकुलशीलस्य, वासो देयो न कस्यचित्' की सूक्ति पढाई जाती है, दूनरी ओर हमें ऐसे आचार्यों को प्रमाण मानने की धारणा दी जाती है। यह और ऐसी ही अन्य परस्पर-विरोधी मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है। उदाहरणार्थ, शास्त्री द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार के आधार पर प्रायः समी प्राचीन आचार्य समसामयिक सिद्ध होते हैं : १. गुणधर
११४ ई० पू० २. धरसेन
५०-१०० ई० प्रथम सदी सौराष्ट्र, महाराष्ट्र ३. पुष्पदंत ६०-१०६ ई.
आंध्र, महाराष्ट्र ४. भूतबलि
७६-१३६ ई० १-२ सदी आंध्र ५. कुंदकुंद
८१-१६५ ई० १-२ सदी तामिलनाडु ६. उमास्वाति
१००-१८० ई.
२ सदी ७. वट्टकेर
प्रथम सदी ८. शिवार्य
प्रथम सदी ९. स्वामिकुमार ( कार्तिकेय )
२-३ री सदी गुजरात ___ इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबलि का पूर्वापर्य और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता है । पर कुंदकुंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त चर्चायें मिलती हैं। यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही माने,
मथुरा
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