Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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पं० माणिकचंद्र शिवलाल शहा, कुंभोज रचित सपादशतकद्वय परमात्मस्तोत्र ११७ आत्मस्वभावं परभाव-भिन्नमापूर्णमाद्यन्न-विमुक्तमेकम् ।
विलीन-संकल्प-विकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ १० ॥ इसमें समागत प्रत्येक पद आत्मा के शुद्ध स्वरूप को दिखाने में समर्थ है, वह विशेषण हो अथवा विशेष्य हो । क्रियावाचक पद भी शुद्धस्वरूप का दर्शक हो गया है। इसी प्रकार, समयप्राभूत की तिहत्तरवी गाथा का अद्भुत भाष्य केवल नव पंक्ति का है, जो परमात्मवाचक पैतालीस शब्दरत्नों से कलापूर्णतः खचित है। प्रथम पंक्ति का तो प्रत्येक शब्द सानिध्य अर्थवाही है। भाष्य को रचना षट्कारक रूप से, सायसाधक-दोनों रूप से, दृष्टान्त रूप से भी शुद्धात्मदर्शी यत्रतत्र सर्वत्र शब्द ब्रह्म का सहज रूप धारण करती हुई दृष्टिप्राप्त को परब्रह्म का साक्षात्कार कराने में समर्थ हो गयी है।
शब्दसागर के शब्दरत्नों का पुण्यस्मरण करके ब्र०५० माणिकचन्द शिवलाल शहा ने २२५ शब्दों का "सपावशतकद्वध-परमात्मस्तोत्र" बनाया है उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
सपादशतक-द्वय परमात्मस्तोत्र
अनुष्टुप् छंद यस्य तीर्थे वयं सर्वे, निवसामोऽत्र भारते । ।
तं वन्दे श्री महावीरं, केवलज्ञान-लोचनम् ॥ १ ॥ आचार्य-कुन्दकुन्दाखेर, रचितेषु विशेषतः । ।
समये वाऽन्यग्रन्थेषु, परमात्म-निदर्शकाः ॥ २ ॥ दृश्यन्ते विविधाः शब्दा, भावपूर्णाश्च मंगलाः ।
आत्मबोधक धन्यान्स्तान्, वक्ष्येऽहं सुसमासतः ॥ युगमम् ।। परमात्माऽन्तरात्माऽत्सौ, सर्वोपम-विलक्षणः ।
सिद्धः साध्यो ध्रुवो नित्यः, स्वभावो विभवोऽनवः ॥ ४ ॥ अनादिनिधनो शुद्धश्चामन्द संविदात्मकः ।
स्वभावभावभूतः सन्नमन्दानन्दनिर्भरः ।।५।। निलोनज्ञानतत्त्वः स, सर्वराग-प्रहायकः ।
नित्यद्योतः स्वतः सिद्धो, ज्ञायकः श्रुतकेवली ॥६॥ चैतन्यश्चेतनो धर्मी, निःप्रकम्प प्रकाशकः ।
शान्तमोहः परंज्योतिः, साध्य-साधकरूपकः ।। ७॥ विविक्तो निर्मलो भूतो, विज्ञानी केवली मुनिः ।
निस्तरंग चैतन्य उपायोपेय-भावकः ॥८॥
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