Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
८६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
है। इस प्रकार, इस दशक में जैन साधु भी धर्म प्रसार और लोककल्याण की भावना से मारतेतर देशों में गये । प्रारम्भ में, परम्परावादियों की ओर से कुछ आपत्तियां भी आई पर उन्होने अपना व्यापक उद्देश्य बनाकर कार्य किया । आज वे आदर के साथ चचित होते हैं।
संगोष्ठी और सम्मेलन युग
विदेशों में धर्म-प्रसार के लिये इस सदी का आठवां दशक सम्मेलन और संगोष्ठी का दशक माना जा सकता है। इनका आयोजन अनेक संस्थायें एवं विश्व-विद्यालय करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में इण्टरनेशनल रिलीजियस फाउन्डेशन, न्यूयार्क के अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में डॉ० सागरमल जैन, डॉ. प्रेमसुमन जैन तथा डॉ. मागचन्द्र भास्कर ने भाग लिया। डॉ. गोकुलचन्द्र जैन ने कोरिया की कान्फरेंस में भाग लिया। इनका आर्थिक पक्ष आयोजक संस्थाओं ने सम्हाला । भट्टारक श्री चारुकीति जी मूडविद्री तथा मट्टारक श्री देवेन्द्र कीर्ति जी भी अनेक सम्मेलनों में विदेश हो आये हैं। ये स्वयं समर्थ संस्थाओं के संचालक हैं। डा० एम० आर० गेलडा भी दो बार अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में जमनी गये हैं । डा० लोखंडे भी इस दशक में एकाधिक वार बाहर गये हैं। डा० नथमल राटया तो लगभग प्रतिवर्ष किसी न किसी सम्मेलन में विदेश जाते हैं। अनुपम जन भी अभी जापान के अन्ताराष्ट्रीय गणित सम्मेलन से लौटे हैं। भारत में भी अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या सम्मेलनों की चर्चा रहती है, पर वास्तविक रूप से अब तक एक भी नामसार्थी सम्मेलन नहीं हो पाया है। नामतः हस्तिनापुर, लाडनूं और दिल्ली में ऐसे सम्मेलन हुए हैं जिनमें दो-तीन से अधिक भारतेतर देशों के विद्वान नहीं आये। आगन्तुकों में फ्रांस की मैडोम कोले कोले, जर्मनी के ( अ० स्व० ) अल्सडोर्फ, जापान के योशीमाशा मिशिवाकी तथा नाइजीरिया के प्रो० एस० डी० वाजपेयी प्रमुख हैं। एक बार अहिंसा पर शोध करने वाले फिनलैंड के प्रो. टाहिटनेन भी काशी और इलाहाबाद आये थे ।
ये सम्मेलन और संगोष्ठियाँ साहित्यिक एवं शैक्षिक स्तर पर महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं। इनमें भाग लेने वाले विद्वान परस्पर सम्पर्क एवं स्वाध्ययन के माध्मम से पुरानी जिज्ञासाओं को सन्तुष्ट तथा नई जिज्ञासाओं के प्रसव का कार्य करते हैं। इनका कार्य कुछ समय बाद ही सामान्य जन के सामने आता है। ये संगोष्ठियाँ संस्कृति के संरक्षण एवं अभिवर्धन में स्थायी महत्त्व के काम करती हैं । आधुनिक युग में ये बहुव्यय साध्य हैं । सामान्य श्रावक को इनका तत्काल कोई फल भी नजर नहीं आता। लेकिन उन्हे कौन समझाये कि जैन संस्कृति का इतिहास और महत्त्व ऐसे ही परोक्ष प्रयासों से प्रकाशित होता रहा है ।
विदेशों में बसे जैनों में जैन धर्म-प्रचार
इधर कुछ वर्षों से जैन धर्म प्रसार की एक नई दिशा उभरी है। इस ओर अभी तक ध्यान ही नहीं गया था। यह पाया गया है कि अकेले अमरीका और कनाडा में ही कोई चालीस हजार जैन बन्भु रहते हैं। अन्य देर्शों में भी पर्याप्त जैन रहते हैं। इनकी संख्या चार लाख तक आंकी जाती है। ये अपने व्यापार एवं आजीविका के विभित्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। अनेकों को एक पीढी से भी ऊपर वहां रहते हो रहा है : अनेकों को नयी पीढ़ी सामने आ रही है। इन जैनों में अच्छे संस्कार बने रहें, बने और पनपें, इस आत्म संरक्षण की वृत्ति को सक्रिय रूप देने की और अनेक सामाजिक तथा अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले जैनों का ध्यान गया है। श्री कान जी स्वामी ने इस दिशा में सर्व प्रथम १९८१ में कदम उठाया। वे नैरोबी में निर्मित जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा एवं पचकल्याणक महोत्सव में लगभग पांच सौ जनों के साथ गये । उन्होंने धर्म प्रभावना एवं स्थितिकरण का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org