Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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विदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ८७
आचार्य तुलसी ने भो कुछ समय पूर्व अपनो कुछ समणियों ( एक नया संघ जो धर्म प्रचार एवं लोककल्याण के कार्य कर सकता है ) को इस उद्देश्य से लन्दन भेजा था। उनका अनुभव बड़ा उत्साहवर्धक रहा । आ० तुलसीजी ने तो अभी एक विदेशी महिला को समणी बनाया है। श्री बदर दम्पत्ति के आर्थिक सहयोग से डा० हुकमचन्द्र मारिल्ल भी गत चार वर्षों से दस-बारह सप्ताह के ब्रिटेन, अमरीका तथा कनाडा के दीरों पर जा रहे हैं। वे जंनों में अध्यात्म एवं नैतिकता के प्रवाह को अविरत करते हुए भाषण शिविर, स्वाध्याय एवं पाठशालाओं को माध्यम बनाने में अग्रणी बन रहे हैं। उनके द्वारा हिन्दी में निर्मित साहित्य की अनेकों पुस्तकें अंग्रेजी में अनुदित होकर हजारों की संख्या में विदेशों में जैन और जैनेतरों में वितरित को जा रही है । लन्दन के श्री कचराभाई नामक सज्जन ने साहित्य प्रसारार्थं अभी एक लाख रुपये भी दिये हैं । यह एक नयी दिशा है जो स्थायित्व चाहती है । इसके लिये यह आवश्यक है कि 'सिद्धाचलं' जैसे स्थान पर कुछ मनोयोगी विद्वानों को रखा जाय जो सदैव प्रेरणायें देते रहने का काम करें। योग-विद्या का प्रसार करने वाली अनेक अन्तर्राष्ट्रीय स्वावलम्बी संस्थायें इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं।
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उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि विदेशों में जैन धर्म एवं संस्कृति का प्रसार कुछ प्रगत पाश्चात्य देशों में बसे जैन और जैनेतरों में सीमित है। पड़ोसी एशियाई देशों की ओर ध्यान नगण्य है । भारत के अनेक पड़ोसी देशों में ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर की संस्कृति का प्रभाव रहा है पर इसके अभिवर्धन की ओर किसी भी जैन व्यक्ति और संस्था का ध्यान नहीं गया। वस्तुतः हमारा यह कर्तव्य है कि हम एशिया ही नहीं, विश्व के सभी महाद्वीपों में अन्य धर्मों के समान जैनधर्म का प्रसार कर दुनिया का मिथ्यात्व मिटावें । टोकियो, न्यूयार्क, सिडनी, लंदन और नैरोबी
में
स्थापना का आधार इनका स्वावलंबन होना
'एक-एक स्थायी केन्द्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इन केन्द्रों की चाहिये | इनका भवन ऐसा हो जो इसके उद्देश्यों की पूर्ति के सामान्य व्यय की व्यवस्था में सहायक हो । जिन क्षेत्रों में ऐसे केन्द्र बनें, वहाँ के जैन प्रवासी भाई भी इस कार्य में पर्याप्त सहायक हो सकते हैं। लेकिन भवन ही उद्देश्य
सेवा निवृत्त विद्वत् वर्ग भी चाहिये जो इस प्रमुख केन्द्रों में जैन विद्या मर्मज्ञ विद्वन्मंडलों
पूरक नहीं होंगे, हमें ऐसे शास्त्रज्ञ एवं बहुभाषाविद् साधु, ब्रह्मचारी या कार्यं को मिशनरी-भावना से कर सकें । समय-समय पर भारत से विश्व के की व्याख्यान यात्राओं का आयोजन भी किया जाना चाहिये ।
आजकल दूरदर्शन और रेडियो की विज्ञापन प्रसारण सेवा भी प्रचार-प्रभावना का महत्त्वपूर्ण साधन हो गया है । शाकाहार प्रचार हेतु हमने अनेक व्यक्तियों एवं संस्थाओं को सुझाव दिया कि अंडा व्यवसायी संगठन के समान शाकाहारी संगठनों को भी दूरदर्शन और रेडियो पर अपना प्रचार करना चाहिये । ईसाई धर्म के समान जैन कथाओं, जीवनों व उपदेशों का विशेषतः प्रसारण कराया जाना चाहिये । प्रसार के इन बीसवीं सदी के माध्यमों का सदुपयोग बहुव्यय साध्य है। संभवतः व्यक्तिवादित अपरिग्रह का सिद्धान्त हमें इस प्रकार के व्ययो के प्रति उपेक्षित बनाये हुए है । लेखक को विश्वास है कि जैन समुदाय प्रभावना के इस रूप का महत्व समझेगा, और भूतकाल के समान वर्तमान में भी समुचित यश अर्जित कर सकेगा । *
युग
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प्रभावना की दृष्टि से १९८८ का वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इस वर्ष लीचेस्टर ( यू० के ० ) में जैन मंदिर निर्माण एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई। इसका आयोजन उस देश के इतिहास में भव्यतम उत्सव के रूप में गिना जायगा। आचार्य श्री चंदना जी की धर्मप्रचार यात्रा पर्याप्त आकर्षक एवं प्रभावी रही है । जैन विश्वभारती में भी एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में 'प्रेक्षा इन्टरनेशनल' का संगठन किया गया यह जैन ध्यान पद्धति का अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार-प्रसार करेगा ।
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