Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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विदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ८५
अध्ययनरत व्यक्तियों ने अवश्य अपने भाषणों एवं संपर्कों द्वारा अमरीका, ब्रिटेन एवं जर्मनी में जैन विद्याओं को आगे बढ़ाया। इनमें श्री चेतन जैन, लीड्स ( ब्रिटेन ), डॉ० बी० रायनाडे ( जर्मनी ) और श्री एन० एल० जैन ( ब्रिटेन, जर्मनी और अमरीका ) के योगदान मुख्य है। श्री जैन ने तो अन्तर्राष्ट्रीय पशु क्रूरता विरोधी सम्मेलन में जंन मिशन का प्रतिनिधित्व भी किया। बाबू कामता प्रसादजी की योजना थी कि जैन विद्वानों का एक मण्डल विश्व के विभिन्न देशों में समय-समय पर प्रचार यात्रायें करे। अमरीका से सम्बन्धित एक योजना उन दिनों बनाई भी गई थी। पर जैन समाज ने इसे प्रोत्साहित नहीं किया। हाँ, वेगन सोसाइटी के जय दिनशा अवश्य इसमें रुचि लेते रहे। इस दशक में जैन सेन्टर आव अमरीका नामक एक संस्था भी न्यूयार्क में स्थापित की गई जो अब 'जैन असोसियेशन आव इन्डियन्स आव नार्थ अमेरिका' नामक केन्द्रीय संस्था का अंग है । अब अमेरिका और कनाडा में तीन दर्जन से भी अधिक जैन संघ काम कर रहे हैं इनमें से अधिकांश का उद्देश्य अपने क्षेत्र में जैन-संस्कृति का संरक्षण एवं परिवर्धन है। डॉ० पी० एस० जैनी, डॉ० डी० सी० जैन तथा अन्य अमेरिका में अध्यापनरत विद्वानों ने भी इस प्रवृत्ति में हाथ बंटाया ।
साधु-मण-समणी युग
धर्म प्रचार की दिशा
भ० महावीर के पच्चीससोंवें निर्वाण महोत्सव की योजना ने सत्तर के दशक में विदेशों में में एक नया उत्साह उत्पन्न किया। इस बार दिगंबर समुदाय काफी पीछे रहा, वह पूरे वर्ष में योजना के बावजूद भी किसी भी विद्वान् को विदेशों में भेजने के लिये न स्वयं को समर्थ कर सका और न किसी को सहयोग ही दे सका । ऐसा प्रतीत हुआ कि जिन संस्थाओं, व्यक्तियों एवं विद्वानों को सामाजिक नेतृत्व प्राप्त रहा है, उन्हें स्वयं तो भाषा ( अतएव अभिव्यक्ति ) संबन्धी कठिनाई थी और नयी पीढ़ी पर उनका विश्वास नहीं था। साथ ही यह कार्य व्ययसाध्य तो था ही, इसका कहीं पत्थर पर स्थायी अभिलेखन भी नहीं होना था, अतः इस ओर दिगम्बर समाज का नेतृत्व उपेक्षा रखे, यह अप्रत्याशित् नहीं था । पर इन्हीं दिनों भारतीय ज्ञानपीठ के श्री एल० सी० जैन एवं प्रो० ए० एन० उपाध्येको यात्रायें अवश्य हुईं, डॉ० लोखण्डे ने अपनी आर्थिक असमर्थता के बावजूद
पर दिगम्बर संस्थाओं ने उन्हें
इस ओर उत्साह दिखाया और अन्यों के सहयोग से वे भाषण देने अमरीका गये थे, अन्त-अन्त तक असमंजस में रखा। डॉ० विमल प्रकाश भी अनेक वार धर्म - इतिहास के अन्तर्राष्ट्रीय संघ के समान कुछ जैनेतर संस्थाओं के सहयोग से तथा कुछ स्वयं के प्रयत्नों से अनेक देशों ( इसराइल, स्वीडन, इंगलैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमरीका ) में गये । उन्होंने प्रभावना का स्तुत्य कार्य किया। डॉ० राजकृष्ण जैन चैरिटेबिल ट्रस्ट से विदेशों में कुछ साहित्य अवश्य भेजा गया। इसका पूर्ण विवरण तो प्राप्त नहीं है, पर यह कार्य प्रशंसनीय है ।
दिगम्बरों के विपर्यास में, इस महोत्सव का उपयोग श्वेताम्बर समुदाय ने अनेक रूप में किया। उन्होंने आगम ग्रन्थों के आलोचनात्मक अध्ययन एवं अनुवाद प्रकाशित किये और विदेशों में उन्हें वितरित कराया। साधु चित्रभानु जी साधु आचार का अतिक्रमण कर लोक-कल्याणार्थ अमरीका एवं कनाडा गये । वहाँ १९७४ में उन्होंने 'जैन मेडीटेशन इन्टरनेशनल सेन्टर' की स्थापना की। वे आज भी अनेक देशों की यात्रायें कर रहे हैं और जैन संस्कृति को योग के माध्यम से प्रसारित कर रहे हैं । इसी समय मुनि श्री सुशील की प्रगतिशील एवं सामयिक विचारधारा सामने आई । वे भी अमरीका गये और उन्होंने १९७७ में 'इन्टर नेशनल महावीर मिशन' की स्थापना की। वे 'णमोकार मन्त्र' के माध्यम से जैन सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। वे जैन योग का भी अभ्यास कराते हैं। उनका अमरीका तथा अन्य देशों में अच्छा प्रभाव पड़ा है। अभी उन्होंने सभी जैन समुदायों के प्रतीक 'सिद्धाचलं' नामक जैन मन्दिर की स्थापना कराई है और 'अन्तर्राष्ट्रीय जैन कान्फरेन्स' को योजना भी चालू की है। इसमें उनके अनेक विदेशी शिष्य भी भाग लेते हैं । यह कान्फ्रेन्स दो बार (१९८५, १९८७ ) दिल्ली में हुई है। श्री सुशील मुनि के कारण अमरीका में बसे जैनों में भी जागृति आई
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