Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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७८ पं० जउमोहनलाल शास्त्री साधूवाद ग्रन्थ
[खण्ड
५०० पेज की तीन सौ पुस्तकों के समकक्ष अकेली द्वादशांगी बैठती है। आज उपलब्ध एकादशांगी तो इसका मात्र ३.३% ही बैठती है। इतना शास्त्र परिग्रह संघ में रहे, तो आपत्तिजनक नहीं माना जाना चाहिये। हाँ, जहाँ संघ लंबे समय तक के लिये रुकने वाला हो, वहां उसके स्वाध्याय के लिये अच्छा पुस्तकालय अवश्य होना चाहिये ।
स्वाध्याय का एक लक्ष्य जहाँ अपनी प्रज्ञा को विकसित करना है, वहीं शिष्यों और श्रावकों को भी प्रज्ञावान बनाना है। उनकी प्रज्ञा का संवर्धन जनभाषा से ही हो सकता है। महावीर ने अपने युग में भी ऐसा ही किया था। इसलिये शास्त्रों के स्वाध्याय की प्रवृत्ति को पल्लवित करने के लिये साधुओं को स्वयं एवं विद्वानों के सहयोग से जन माषान्तरण एवं ज्ञान के नये क्षितिजों के समाहरण का कार्य भी करना आवश्यक हो गया है। प्राचीन युग में या मध्यकाल में इस कार्य का महत्व उतना न भी आंका गया हो, पर आज यह अनिवार्य है। इस कार्य हेतु समुचित सुविधाओं का सुयोग साधुत्व को बढाने में ही सहायक होगा। शास्त्र एवं सुविधा का यह परिग्रह परंपरावादियों के लिये परेशान करता है, पर समयज्ञों के लिये यह अनिवार्य-सा प्रतीत होता है। क्या हम नहीं चाहते कि हमारा संघनायक परा और अपरा विद्याओं में निष्णात न हो ? क्या हम नहीं चाहते कि हमारा साधु विद्यानुवाद, प्राणावाय, ( आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र विद्यादि ), लोकविन्दुसार ( गणित विद्या ), क्रियाविशाल ( काव्य एवं आजीविका के योग्य कलायें ), प्रथमानुयोग, आत्म एवं कर्मप्रवाद आदि का सम्यग् ज्ञाता हो ? शास्त्रों का आदेश है कि इन विद्याओं का उपयोग स्वयं के आहार पाने या आजीविका के लिये न किया जावे, पर लोकोपकार के लिये ऐसा करना कहां वजित है ? मध्यकाल की जटिल परिस्थितियों को देखते हए जैन आचार्यों ने अनेक लौकिक विधियों का अपने आचार-विचार में समाहरण किया। इसी से वे महावीर तीर्थ की रक्षा कर सके। मानतुंग, समन्तभद्र या अकलंक को धर्मप्रभावना हेत ही अपनी विद्यायें प्रदर्शित करनी पड़ी। यह सचमुच ही खेद की बात होगी यदि बीसवीं सदी के आचार्य अपनी इन स्वाध्याय-प्राप्त विद्याओं एवं अन्तःशक्ति का उपयोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वयं के भौतिक हित में करें। ऐसे संसक्त साधनों से साध-संस्था गरिमाहीन हो जावेगी। सत्चारित्री श्रावक ही साधु-संस्था को ऐसे दोषों से उबार सकता है। इन दोषों से साधु अयथार्थ होता है, अप्रतिष्ठित हो सकता है।
प्राचीन जैन शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञात होता है कि जैन पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि शासन-देवताओं को आशाधर तक के युग में, पूजनीय नहीं मानते थे। इसी प्रकार, मट्टारक पद भी, जो प्रारंभ में धर्मसंरक्षण हेतु अस्तित्व में आया, तेरहवीं सदी में सम्मानित नहीं माना गया, आज आचार्य पालित हो रहा है। कुछ भट्टारकों के दर्शन भी सामान्य अवस्था में दुर्लभ है। इन दोनों परंपराओं की मान्यता आज पुन वर्धमान है। सैद्धान्तिकतः यह सही नहीं है. पर इस विषय में मतभेद भी इतने हैं कि हमारे संघनायक भी इस विषय में मौन है। यदि स्वाध्याय हमें मुल सिद्धान्तों की रक्षा का बल नहीं देता, तो इसे अचरज ही माना जाना चाहिये ।
साधु और बीसवीं सदी
___ बोसवों सदी का उत्तरार्ध जन साधुओं की प्रतिष्ठा के लिये कठोर परीक्षा का समय प्रमाणित हो रहा है । हमने पिछले कुछ प्रकरणों में बीसवीं सदी के अनेक समस्यात्मक प्रकरणों से साधु-संस्था के प्रभावित होने की चर्चा की है। इन प्रकरणों का सामयिक निर्देशक समाधान प्रबुद्ध वर्ग की दृष्टि में साधुओं के प्रति सम्मान लायेगा। लेकिन कुछ ऐसे भी प्रकरण भी हैं जिन्हें नियंत्रित करना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। इनकी ओर अनेक विद्वानों एवं पत्रकारों ने ध्यान आकृष्ट किया है। हमारी आशा है कि हमारा संघनायक वर्ग इन समस्याओं का सही समाधान कर साध-संस्था के प्रति वर्धमान अनास्था को दूर करने में सहायक होगा।
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