Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
View full book text
________________
- ३४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
तत्व (चरम) २: जीव, अजीव द्रव्य ६ : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल (पांच अजीव), इनमें प्रथम पाँच द्रव्य अस्तिकाय
कहे जाते हैं । काल इनपे भिन्न है। तत्व ७: जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष
पदार्थ
९:जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप
जनों का तर्कशास एवं मान का सिमान्त
जीव की प्रकृति शुद्ध चेतनरूप है, अतः उसके अनंतज्ञान भी सहज है। लेकिन यह ज्ञान कम-जनित अज्ञान से ढंका रहता है। कर्मों के प्रभाव से जीवों में केवल सीमित ज्ञान होता है। जैसे-जैसे कर्म-बन्ध कम होते जाते है, अनंत ज्ञान रूप सहज स्वभाव प्रकट होने लगता है। इच्छायें, राग-द्वेष, अहंभाव आदि ज्ञान के बाधक है । संयम से सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति के लिये ज्ञान के पांच चरण होते हैं, मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल । मति सामान्य ज्ञान है। इसमें इन्द्रियज्ञान, स्मृति व अनुमान समाहित हैं। इसमें इन्द्रिय और मन की सहायता से ज्ञान होता है, अतः इसे परोक्ष ज्ञान कहते है। यह पारिभाषिकता पाश्चात्य मनोविज्ञान की धारणा के विपरीत है । इसके अनुसार, इन्द्रियों (तथा मन) के माध्यम से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। श्रुत ज्ञान शास्त्रज्ञान है। यह भी परोक्ष माना जाता है। यह ज्ञान स्वयं प्राप्त नहीं किया गया है । अवधि ज्ञान अतीन्द्रिय दृष्टि एवं श्रवण के मनोवैज्ञानिक सामथ्यं से प्राप्त ज्ञान को कहते है । यह ज्ञान इन्द्रियों के साक्षात् संपर्क पर निर्भर नहीं करता, अतः इसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते है। मनःपर्यय ज्ञान दूसरों के मन को जानने की प्रक्रिया है। जब मनुष्य अज्ञान से पूर्णतः मुक्त होकर शुद्ध चैतन्यमय हो जाता है, तब जो पूर्णज्ञान होता है, उसे केवल ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्रत्यक्ष और तत्काल होता है। यह इन्द्रिय और मन पर निर्भर नहीं करता। यह अनुभवगम्य है। इसे व्यक्त नहीं किया जा सकता । केवल ज्ञान उपनिषदों के भावातीत ज्ञान एवं बौद्धों के निर्वाण के समकक्ष है।
सामान्य मनुष्य को पांच ज्ञानों में से प्रथम दो-मति और श्रुत होते है। संयमी और ज्ञानियों को चार ज्ञान तक हो सकते हैं । लेकिन केवलज्ञान तो परमविशुद्ध चैतन्ययुक्त जीव के ही संभव है ।
जीव और अजीव-दोनों वास्तविक हैं। अपने अस्तित्व के लिये ये एक दूसरे पर निर्भर नहीं है। वाह्य पदार्थों का अस्तित्व जीवाधीन नहीं है। इस प्रकार जैनधर्म को बहुत्ववादी धर्म माना जा सकता है। यह जीव और अजीव-दोनों को अनादि, अनंत, स्वाधीन और बहसंख्यक मानता है।
जैन तत्वविद्या का विवरण जैन न्याय के उस सिद्धान्त के निरूपण के विना अधूरा हो कहा जायगा जिसको पाश्चात्य भौतिकी के सापेक्षता सिद्धान्त का पूर्वरूप माना जा सकता है । इसके अनुसार, एक हो वस्तु के विषय में सकारात्मक और नकारात्मक निरूपण किये जा सकते हैं। इसे अस्ति-नास्तिवाद कह सकते है। इसे सप्तभंगा कहते हैं। इस मत की परीक्षा करने पर इसको आभासी विसंगति में तर्कसंगतता के सकेत मिलते हैं । किसी वस्तु के विषय में सकारात्मक निरूपण के लिये चार दशायें आवश्यक है-स्वगत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव (परिणमन)। इसी प्रकार उसके नकारात्मक निरूपण में भी चार दशायें आवश्यक है-परद्रव्य, परक्षेत्र, पर-काल, पर-भाव । इसे हम एक दृष्टान्त से समझें । यदि हम सोने के बने आभूषण का वर्णन करना चाहें, तो उसे निम्नरूपों में किया जा सकता है: (i) द्रव्य
यह आभूषण सोने का बना है। यह आभूषण किसी अन्य धातु का बना नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org