Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड प्रक्रिया में व्यावहारिक अनुबन्ध का रूप ले लेता है। संविदा अधिनियम में एक ऐसा विलक्षण प्रावधान है जो चिरकालिक सामाजिक बुराई जुआ, सट्टा या बाजी लगाने पर बड़ा कठोर प्रहार करता है और इस विषय में की गई संविदा को निष्प्रभावी व शून्य मानता है । मेरे विचार में इस अधिनियम की एक ही धारा धर्माचरण की दृष्टि से अपूर्व सामाजिक उपलब्धि है । संविदा अधिनियम के अनेक ऐसे प्रावधान है जो इस बात को स्पष्टता से प्रकट करते हैं कि धर्माचरण के सिद्धान्तों को व्यवहार की प्रक्रिया में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान मिला है, जितना कि उनका धर्म साधना के जगत् में स्थान है।
उपरोक्त विवेचन के प्रकाश में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वर्तमान न्याय व्यवस्था व धार्मिक आचार संहिता-दोनों व्यक्ति व समाज के परिष्कार का एक ही लक्ष्य लेकर निर्मित हुए है, अतः दोनों में पर्याप्त मात्रा में एकरूपता है । पर जैसा मैं ऊपर कह चुका है, दोनों की परिपालना में एक महत्वपूर्ण अन्तर है। धर्म संहिता की पालना व्यक्ति स्वेच्छा से मात्र अपनी आत्मा की साक्षी के सहारे जीवन को संमुज्जवल बनाने के उद्देश्य से करता है, अतः व्यक्ति या समाज सधार का यह रास्ता स्थायी होते हये भी लम्बा व दुर्गम है, जिसमें कभी कभी फिसलने की आशंका बन सकती है। न्याय व्यवस्था में कानन की परिपालना प्रशासन की शक्ति के सहारे व्यक्ति से अनिवार्यतः कराई जाती है, अतः व्यक्ति या समाज सुधार का यह रास्ता अस्थायी होते हुये भी त्वरित फलदायक होता है पर इसमें शक्ति प्रयोग के कारण कभी कभी विद्रोह व उत्पीडन की आशंका निरन्तर बनी रहती है। सच तो यह है कि न्याय आचार संहिता जहाँ कई बिन्दुओं पर एक रूप हो गई है वहाँ अन्य विन्दुओं पर एक दूसरे की पूरक है । आवश्यकता - इस बात की है कि दोनों में सन्तुलन बना रहे, व्यक्ति और समाज को धार्मिक आचारसंहिता के प्रति स्वेच्छा से आकृष्ट होने के लिये शिक्षा व अन्य माध्यमों के जरिये प्रोत्साहित किया जाये व समाज में व्यक्ति के सम्मान मानवीय गणों के आधार पर किया जाये। साथ ही जो व्यक्ति नैतिकता विहीन आचरण के लिये उद्यत हो और समाज व अन्य व्यक्तियों के हितों की उपेक्षा या अवमानना करने पर तुले हुए हों व जिनका एकमात्र लक्ष्य भय और आतंक फैलाना बन गया हो, उन्हें न्याय प्रक्रिया के अनुसार दण्डित कर सुधारने के लिये विवश किया जाये। दोनों व्यवस्थाओं को बलशाली बनाया जा कर परिस्थिति के अनुरूप प्रयोग किया जाये तो मेरा निश्चित विश्वास है कि समाज में सुख और शान्ति का वातावरण अवश्य बनेगा।
अन्त में मैं यह भी कहना चाहूँगा शि न्याय व्यवस्था कितनी हो सुनिश्चित व प्रभावी हो या धार्मिक आचारसंहिता कितनी ही शुद्ध व प्रामाणिक हो, जब तक उसकी परिपालना कराने वालों या करने वालों का चरित्र उज्जवल एवं निष्कलंक नहीं होगा, तब तक इन दोनों से किसो को लाभ नहीं हो सकता । धर्माचरण की प्रेरणा देने वाले धर्माचार्य या धर्माधिकारी का चरित्र, यदि वास्तव में किसी प्रकार के दौबल्य से ग्रस्त नहीं हो, तो उनसे सारा समाज स्वतःप्रेरणा पाकर सही रास्ते पर चल पड़ेगा और यदि परिपालना करने वाले अपने चरित्र को उज्जवल बनाने को संकल्पशील है, व अभय और असंग बन कर अपने कार्यों का निष्पादन करते है, तो समाज की प्रगति को कोई नहीं रोक सकता। इसी प्रकार न्याय व्यवस्था के संचालक या न्यायाधिकारी का चरित्र यदि उत्कृष्ट है तो न्याय व्यवस्था के सारे श्रेय तत्वों को वह प्रभावी बना सकेगा, और इस व्यवस्था को हर स्थिति में विशुद्ध रखने के लिये यदि समाज में साहस, संकल्प और सहयोग करने की भावना का बल है तो समाज में स्वतन्त्रता, समता एवं भ्रातृत्व का स्रोत अपने आप फूट पड़ेगा। हर अच्छी व्यवस्था अच्छे व्यक्ति के हाथों में निखर उठती है और बुरे व्यक्ति के हाथों में प्रदुषित हो जाती है । इसलिये दोनों व्यवस्थाओं को सफल बनाने की दिशा में उसको प्रभावित करने वाला मनुष्य या व्यक्ति चरित्रवान बने। यह प्राथमिक व प्रमुख अपेक्षा है। मैं धार्मिक आचार संहिता को वर्तमान न्याय व्यवस्था का आधार मानता हूँ और न्याय व्यवस्था को उस संहिता का सुफल मानता हूँ। अपेक्षा है कि आधार सन्तुष्ट और सुखद फल देने की सम्भावना वाला हो और फल सरस, सुस्वादु व स्वस्थ हो ताकि आधार का सही मूल्यांकन हो सके।
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