Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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३२. सौम्य हो ।
३३. परोपकार करने में उद्यत हो ।
३४. काम क्रोधादि के त्याग में उद्यत हो ।
३५. इन्द्रियों को वश में रखे ।
धार्मिक परिप्रेक्ष्य में आज का श्रावक
यद्यपि इन गुणों की संख्या भी विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग बताई है. फिर भी इन पंतोस गुणों में उन सबका समावेश हो जाता है। इन गुणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचार के नियम पूर्णतः व्यावहारिक व सामाजिक है । इन गुणों पर व्यक्ति के स्वयं, परिवार, ब समाज का विकास निर्भर है । इन व्यावहारिक नियमों के बाद सैद्धान्तिक नियमों को लें, तो अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाव्रतों का पालन महत्त्वपूर्ण होता है ।
अणुव्रत
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अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का स्थूल रूप से पालन करना अणुव्रत कहलाता । हिंसा के दो भेद किये जा सकते हैं -- सूक्ष्म व स्थूल । पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि व वनस्पति की हिंसा सूक्ष्म व त्रस प्राणियों की हिंसा स्थूल हिसा कही जाती है। श्रावक गृहस्थावस्था में रहकर सूक्ष्म हिंसा से नहीं बच पाता है और सामाजिक कार्यों में स्थूल हिंसा होती है । अतः वह सिर्फ "मैं इसे मारू" इस प्रकार की संकल्पी हिंसा का त्याग करता है । आज के व्यावहारिक जगत में भी सभ्य व्यक्ति अनावश्यक त्रस जीवों की हिंसा का विरोध करेगा ही ।
द्वितीय असत्य भाषण नहीं करने की बात है। इसमें लोक चिरुद्ध, राज्य विरुद्ध, धर्म विरुद्ध झूठ नहीं बोलने का विधान है । दूसरों की निन्दा करना, गुप्त बातों को प्रकट करना, झूठा उपदेश देना, झूठे लेख लिखना- इनमें दोष माने गये हैं ।
स्थूल रूप से चोरो नही करना, किसी को चोरी के लिए नहीं भेजना, चोरी की वस्तु नहीं लेना, राज्यनियमों का उल्लघंन नही करना अस्तेय अणुव्रत है । सामान्यतया यह सामाजिक व आर्थिक अपराध भो है ।
अपनी पत्नी की मर्यादा रखकर अन्य सभी स्त्रियों को माता-बहिन के सदृश्य समझना ब्रह्मचर्य सिद्धान्त है । किसी वैश्या आदि के साथ रहना, अश्लील काम क्रीडाएँ करना, दूसरों का विवाह कराना, कामभोग की तीव्र अभिलाषा करना दोष है । इनसे बचने का निर्देश है । आज भी बलात्कार, वैश्यावृत्ति, हेय दृष्टि से देखे जाते है ।
अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु का उपयोग नहीं करना, उसे दूसरों को बांट देना अपरिग्रह है । साथ ही अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा निश्चित ले जिससे उससे अधिक परिग्रह से मुक्त रह सकें ।
तीन गुणव्रत इनमें दिशाव्रत, उपभोग परिमाण व्रत व अनर्थ दण्ड आते है । ये अणुव्रतों के विकास में सहायक होते हैं । दिशाव्रत दिशाओं की सीमा निर्धारण करता है, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम आदि में गमनागमण एवं व्यापार करने पर रोक लगाता है । अनर्थ दण्ड हरी वनस्पति काटना आदि अनर्थकारी हिंसा के त्याग का उपदेश देता है ।
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चार शिक्षाव्रत
इनमें सामायिक देशावकाशिक, औषध व अतिथि संविभाग व्रत सम्मिलित है । ये मानव की अन्तः चेतना से जाग्रत संस्कार है । इनसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ जाता है । इनसे व्यक्ति सहिष्णु व आत्मजयी बनता
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