Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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७० पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
है, विकारों व पापों का प्रायश्चित करता है व मुक्ति की ओर अग्रसर होने के लिए कदम बढ़ाता है, यद्यपि जैन आचार के ग्रन्यों में गुणवतों व शिक्षाव्रतों के नामों में भेद है फिर भी अर्थ व विवेचना की दृष्टि से सभी एक समान है। वर्तमान परिस्थितियां
उपर्युक्त श्रावकाचार के व्यावहारिक व सैद्धान्तिक नियमों को जब आज के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो ग्लानि महसूस होती है । अपवाद की बात नहीं करता, परन्तु साधु के लिए भी "अम्मा पिया" की उपाधि से अलंकृत श्रावक आज अपना अस्तित्व भूलाए बैठे है । आज अहिंसक होने के स्थान पर दूसरों पर दोषारोपण, बाह्य आडम्बर पूर्ण वैभव प्रदर्शन व आयोजन, धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर समाज टुकड़े-टुकड़े कर देने वाला अहिंसा का पूजारी महावोर का अनुयायी वही श्रावक है ? ।
अपना दोष दूसरों पर आरोपित कर सम्यकत्वी कहलाने वाला श्रावक स्वधर्मी बन्धु की आलोचना करता-फिरता है । डॉ. दयानन्द भार्गव ने एक सभा में ठीक ही कहा था कि "घर में पहले दिया जला लें, मन्दिर में बाद में"। स्वयं के दोषों को पहले देख लें, बाद में अन्य की आलोचना करें। धर्म व सिद्धान्त की बात करते हुए हम अपने अन्दर में हिंसा, स्वार्थ व आसक्ति के तत्व छिपाये घूम रहे है। सच तो यह है कि ऐसे दिखावटी श्रावकों का ही बोलबाला रहता
वर्ग सभी को धर्म, सदाचार व नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं और उनकी निगाहों के नीचे वह सब होता है जो नही होना चाहिये । लाखों का दान देने वाला व्यक्ति समाज का नेता, सुधारक, धर्मनिष्ठ, उपासक, उपाधियों से अलंकृत होता है । यह कैसा श्रावक ? व कहां का धर्मनिष्ठ ? अगर सच पूछा जाय तो एक माह में एक घण्टा भी श्रावकाचार का पालन नहीं होता होगा।
आज श्रावक स्वयं के आचार से भी पूर्ण रूप से परिचित नहीं है, तो पालन करने की बात ही क्या है ? कहाँ है वह श्रमण भगवान महावीर के अनुयायियों की परम्परा जहाँ एक और आनन्द व कामदेव जैसे धावक थे-जयन्ती, शिवानन्दा, अग्निमित्रा जैसी श्राविकाएं थी, जो साधुओं से भी उत्कृष्ट कोटि की साधना में रत थे, जो स्वयं के आचारविचार के ज्ञाता होने के साथ साथ साध्वाचार के भी पूर्ण ज्ञाता थे। जहाँ स्वयं के आचार में शिथिलता आती उसका प्रायश्चित करते थे, साथ ही मुनि आचार में शिथिलता दृष्टिगोचर होती, तो उन्हें भी कर्तव्य बोध कराते थे । परन्तु आज इस दायित्व को संभालने वाला श्रावक वर्ग कहाँ है ? कहाँ है वह लोकाशाह जो समाज में क्रान्ति का अग्रदूत बन सके ?
__ श्रावक का पहला कदम सम्यकत्व होता है अर्थात् सुगुरु, सुदेव व सुधर्म पर श्रद्धा, परन्तु आज हमारे धर्माचार्य सम्यकत्व के नाम पर अपनी अपनी टीमें बना रहे हैं, वे अलग-अलग गुरुओं से अलग-अलग सम्यकत्व ग्रहण कराने पर जोर देते है । श्रावक आचार के नियमों को सुयुगानुकूल परिस्थितियों में कहीं भी बदलने की आवश्यकता नहीं है । क्या महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त सप्त कुव्यसन का त्याग, मार्गानुसारी के गुण; बारह व्रतों को उपयोगिता तव थी, अब नही है और उनमें परिवर्तन की गुंजाइस है ? नहीं ! ये तो जीवन के शाश्वत मूल्य है, जिनमें वर्षों क्या, शताब्दियों तक परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है ।
श्रावकाचार का आशय सिर्फ यही है कि श्रावक अपनी अस्मिता को पहचाने, अपने आचरण व व्यवहार में एकरूपता रखे । अपने कर्तव्यों व दायित्वों को पहचानने से ही समाज का अस्तित्व बना रह पायेगा।
६. श्रवक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न-डॉ० सागरमल जैन ।
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