Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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४२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
१०. स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से
अपशब्द कहना या अंग विक्षेप करना (धारा
५०९), ११. अश्लील पुस्तकों व वस्तुओं का क्रय या अश्लील
संगान (धारा २९२ से २९४) ।
५. पांचवा अपरिग्रह अणुव्रत
क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद, धन, इस दिशा में कानून में अभी कोई प्रावधान नहीं है धान्य, गृह सामग्री आदि नव प्रकार के परिग्रह "भू सीलिंग अधिनियम से भूमि की सीमा की जा की मर्यादा करना।
रही है-कालांतर में शहरी सम्पत्ति की सीमा करने बी-अतिचार
का कानूनी प्रावधान करने की चर्चा है। क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद, धन, १. लोक सेवक द्वारा भ्रष्ट व अवैध साधनों से धान्य, गृह सामग्री की मर्यादा का अतिक्रमण ।
परितोष प्राप्त करना या लेना अपराध है (धारा
१६१ से १७१), २. भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में इसके लिये
__ कठोर दण्ड का प्रावधान है, व्रत परिपालन या अतिचार सेवन की सीमा
अपराध की सीमा श्रावक अपने व्रतों का पालन मन, वचन व अपराध ही दण्डनीय नहीं है पर उसकी प्रेरणा आदि शरीर से करता है व कराने तक, व्रत पालन भी दण्डनीय है, जिसके प्रावधान इस प्रकार है : की सीमा है। अतिचारों के सेवन से भी वह १. दुष्प्रेरणा (धारा १०९ से ११७), करने-कराने की सीमा तक बचता है । अनुमोदन २. अपराध करने की परिकल्पना को छिपाना करना उसके लिये अपवाद स्वरूप है व उससे
(धारा ११८ से १२०), व्रत भंग या अतिचार सेवन नहीं होता।
३. अपराध करने की सद्भावना (धारा ३४), ४. अपराध करने का सह-उद्देश्य (धारा ४२).
५. षड्यंत्र (धारा १२० बी, १२१ से १३०)। इस प्रसंग में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जिस तरह धर्माचरण की प्रेरणा का मूल आधार आत्मा की पवित्रता व नैतिक शक्ति में विश्वास है, उसी तरह अपराधों की दण्ड व्यवस्था का आधार भी क्रमशः उसी दिशा में गतिमान हुआ है। धर्माचरण में तो प्रारम्भ से ही दुराचरणों को छोड़ने की प्रेरणा दी गई है. पर उसके परिपालन के पीछे बाह्य शक्ति-प्रयोग की कमी होने से सारे समाज पर उसका तत्काल प्रभाव नहीं पड़ पाया। अतः न्याय प्रक्रिया में दण्ड व्यवस्था के जरिये सदाचरणों की संहिता के उल्लंघन करने वाले कार्यों को प्रशासन के जरिये दण्डनीय बनाया गया । प्रारम्भ में चोरी करने वाले के हाथ काट दिये जाते थे, कुदृष्टि का दण्ड आँख फोड़ना था, अंगोपांग छेदन करने वाले को वैसा ही दण्ड दिया जाता, हत्या या मानव बध करने वाले को खुले आम शूली, फाँसी या बोटी बोटी काट कर कुत्तों, कागों से नुचवाना, आदि थे, पर ज्यों ज्यों सभ्यता व संस्कृति का विकास हुआ व सामुहिक करुणा व समता का विस्तार हुआ, त्यों त्यों इस प्रकार के निर्मम एवं दुष्टतापूर्ण दण्डों को समाप्त कर दिया गया । वर्तमान सारी दण्ड व्यवस्था मात्र सीमित कारावास या अर्थदण्ड पर ही आधारित है ताकि उसमें अपराधी की भावना का मूल्यांकर हो सके व उसके हृदय परिवर्तन या सुधार का अवकाश रहे । इतना ही नहीं अब तो कारावास के बन्द आवास-स्थल अनेक स्थानों पर
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